Thursday, April 11, 2019

क्या कानून का बन जाना ही काफी है?

बचपन से लेकर जवानी तक हमे हमारे 'सभ्य समाज' के द्वारा बनाई गई एक महिला और पुरुष की परफेक्ट इमेज वाली डेफिनेशन में फिट करवाया जाता रहा है और जो इसमे फिट नहीं बैठते उन्हें हीन नजरों से देखा जाता है।
पिछले साल को अगर कानूनी तौर पर बदलावों का साल कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिस तरह धड़ल्ले से कानूनों में परिवर्तन हुए देखने से तो लगा मानो परिवर्तन की बाढ़-सी आ गयी हो लेकिन ठहरिये ये परिवर्तन बस ओपरी ओपरी रहे या सचमुच इनका कुछ फायदा भी हुआ?

चित्र साभार :गुगल

विषय क्या था?
भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को सितंबर 2018 में निरस्त करदिया गया था। धारा 377 के तहत 14 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की व्यवस्था थी लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है। न जाने कितने वर्षों से दबी आवाज़ में ही सही लेकिन LGBTQ समुदाय के साथ-साथ सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा भी इसका विरोध होता रहा है। धीरे-धीरे इन सबकी आवाज़ एक गूँज बनकर देश की सबसे बड़ी अदालत की चौखट पर पहुँच गयी और अंततः 377 को निरस्त कर ही दिया गया। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के अलावा संविधान पीठ में जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल थे। जानकारी के लिए बता दें कि इस मामले को सुरेश कुमार वर्सेज नाज फाउंडेशन(2013) के नाम से जाना जाता है।

कानून के निरस्त होने से पहले भी और कानून के निरस्त होने के बाद भी माहौल वैसा ही है। ना यह परफेक्ट 'मैन' और 'वूमेन' की डेफिनेशन टस से मस हुई है और न ही हमारी सोच।

प्रश्न क्या है?
धारा के हटने पर बहुत सारे लोग उत्सव मनाया रहे थे लेकिन यह सोचनीय विषय है कि जिस देश में एक लड़की अपनी पसंद से अंतरजातीय विवाह तक नहीं कर सकती हो क्या ऐसा समाज एक लड़के से दूसरे लड़के या एक लड़की से दूसरी लड़की के प्रेम को स्वीकार करेगी? क्या कानून का बन जाना ही काफी होता है? असल में कानून है क्या? एक किताब में लिखे कुछ आदेश जो केवल कागज़ी हैं? क्योंकि अंततः रहना तो समाज में ही है ना? 

मुद्दा जो कभी नहीं बदला

कई मुद्दे आये और गए लेकिन इतिहास गवाह है कि न के बराबर जिसमे बदलाव आया है वह है बाबरी मस्जिद मुद्दा। 

चित्र साभार :गुगल
क्या है बाबरी मुद्दा?
कहते हैं 1528 में बाबर द्वारा यहां मस्जिद बनवाई गई थी और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार इसी जगह भगवान श्री राम का भी जन्म हुआ था। जिसमे हिंदुओ का कहना है कि यहां भगवान राम के मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण किया गया था। इसी के चलते 1853 में पहली बार इस मुद्दे को लेकर हिन्दू मुसलमानों में हिंसा हुई। 1949 में विवादित ढांचे के केंद्रीय स्थल पर भगवान राम की मूर्ति रख दी गयी। मामला यूंही चलता रहा और 1990 में बीजेपी अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ से उत्तर प्रदेश के अयोध्या तक रथ यात्रा निकाली जिसका परिणाम साम्प्रदायिक दंगे थे। मामला घिसटता हुआ कोर्ट कचहरी के चक्कर काटते हुए 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटा जिसमें एक हिस्सा राम मंदिर, दूसरा सुन्नी वक्फ बोर्ड और तीसरा निर्मोही अखाड़े को दिया गया। 2011 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी गयी। खैर! ये तो रही पुरानी बातें अब मामला यहां तक पहुंचा है कि चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने विभिन्न पक्षों से मध्यस्थता के जरिए इस दशकों पुराने विवाद का सौहार्दपूर्ण तरीके से समाधान किए जाने की संभावना तलाशने को कहा है।

संभावनाएं तलाशने का अर्थ?
लेकिन क्या 'संभावना तलाशने' कह देने मात्र से मुद्दे का हल हो सकता है? या इसमे भी राजनैतिक दांव पेंच खेले जा रहे है? या फिर बात केवल इतनी सी है कि हमारा देश संविधान प्रधान नहीं है भावना प्रधान देश है। क्योंकि संविधान में तो विधान होता है, जो हदें तय करता है, भावना में संभावना होती है। अब समझने की जरूरत ये है कि यहां पर सम्भावना जो है ना वो वोट की है, सम्भावना इस बात की है कि लोग जो हैं वो रोटी, कपड़ा, मकान, अस्पताल, स्कूल के जैसी व्यर्थ बेकार निरर्थक की चीज़ों में बिल्कुल भी अपना ध्यान न लगाएं। जी सम्भावना इस बात की है कि भावनाओं के इस महासागर में सत्ता का जहाज जो है वो आसानी से बिना किसी रुकावट के तैर जाए। सम्भावना इस बात की भी है कि हम संवैधानिक संस्थाओं पर पैसा बर्बाद न करके ऊंची मूर्तियां बनवाएं, शहरों के नाम बदल और सबसे जरूरी मंदिर बनवाएं और गुरुवर अब जो हम हैं सही सम्भावनाओं के साथ एकदम सही रास्तों पर हैं। इसी पर आँख मूंदकर चलते रहें, यही कामना है।
फैसला चाहे जो भी आये लेकिन मंदिर बनने और मस्जिद बनने के बीच जिसकी हार होगी वह होगी इंसानियत। 


आज का वैलेंटाइन डे, कल का मीटू?


चित्र साभार :गुगल

भारत में महिलाओं की दशा क्या है?
राजनीति, कारोबार, कला तथा नौकरियों में पहुँचकर नए आयाम गढ़ रही हर 3 में से 2 महिलायें आज भी किसी न किसी मोड़ पर प्रताड़ना का शिकार होती हैं। स्त्री और मुक्ति आज भी नदी के दो किनारों की तरह हैं, जो कभी मिल नहीं सकती। जब-जब स्त्री अपनी उपस्तिथि दर्ज कराना चाहती है तब-तब न जाने कितने रीती-रिवाजों,परम्पराओं की दुहाई देकर उसे गुमनाम जीवन जीने पर विवश कर दिया जाता है और अगर इनसे भी वह न रुके तो दुराचार का सहारा लिया जाता है। आखिर इस बात से कैसे नकारा जा सकता है कि बचपन से लेकर जवानी तक लड़की के साथ होने वाले हर मजाक में शादी की गूंज शामिल होती है।

मी टू क्या था?
भारत में अक्टूबर 2018 में #metoo नाम से एक अभियान चला। तनुश्री दत्ता से शुरू हुआ यह मीटू देश के लगभग हर शहर तक गया जिसके माध्यम से न जाने कितनी लड़कियां सामने आई और खुलकर उनके साथ हुए दुराचारों को सोशल मीडिया पर लिखकर सबको बताया। जिसके चलते अर्श पर चमक रहे कई नाम, मिनटों में फर्श पर अपना नाम ढूंढते नज़र आएं। 
वहीं पर कुछ लोग इसे केवल भावनात्मक लहर मान रहे हैं। उनका मानना है कि आरोप लगाने वाले की जिम्मेदारी केवल आरोप लगाने की ही है उसे साबित करने की नही। इसपर विचार किया जाना आवश्यक है कि क्या मीडिया ट्रायल वाले इस ज़माने में अब सोशल मीडिया ट्रायल भी जन्म ले रहा है?

प्रश्न क्या है?
जिस दौर में आज महिला और पुरुष की बीच की बरसों से बनी बनाई खाई को पाटने का काम किया जा रहा है, सदियों से जेंडर टैबू माने जाने वाले विषय फिर चाहे वह पीरियड्स हो, सेक्स हो या अन्य कोई भी विषय हो सबपर खुलकर बात की जा रही है वहीं पर मीटू जैसी चीज़ो का उठना कहीं न कहीं इस खाई को और भी चौड़ा कर सकता है? या उनके बीच की यह खुलेपन वाली प्रक्रिया बाधित हो सकती है? आखिर इस बात क्या गारंटी है कि आज बनाया गया वैलेंटाइन डे कल को जाकर मीटू नहीं बन सकता है?

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