बचपन से लेकर जवानी तक हमे हमारे 'सभ्य समाज' के द्वारा बनाई गई एक महिला और पुरुष की परफेक्ट इमेज वाली डेफिनेशन में फिट करवाया जाता रहा है और जो इसमे फिट नहीं बैठते उन्हें हीन नजरों से देखा जाता है।
पिछले साल को अगर कानूनी तौर पर बदलावों का साल कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिस तरह धड़ल्ले से कानूनों में परिवर्तन हुए देखने से तो लगा मानो परिवर्तन की बाढ़-सी आ गयी हो लेकिन ठहरिये ये परिवर्तन बस ओपरी ओपरी रहे या सचमुच इनका कुछ फायदा भी हुआ?
![]() |
चित्र साभार :गुगल |
विषय क्या था?
भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को सितंबर 2018 में निरस्त करदिया गया था। धारा 377 के तहत 14 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की व्यवस्था थी लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है। न जाने कितने वर्षों से दबी आवाज़ में ही सही लेकिन LGBTQ समुदाय के साथ-साथ सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा भी इसका विरोध होता रहा है। धीरे-धीरे इन सबकी आवाज़ एक गूँज बनकर देश की सबसे बड़ी अदालत की चौखट पर पहुँच गयी और अंततः 377 को निरस्त कर ही दिया गया। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के अलावा संविधान पीठ में जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल थे। जानकारी के लिए बता दें कि इस मामले को सुरेश कुमार वर्सेज नाज फाउंडेशन(2013) के नाम से जाना जाता है।
कानून के निरस्त होने से पहले भी और कानून के निरस्त होने के बाद भी माहौल वैसा ही है। ना यह परफेक्ट 'मैन' और 'वूमेन' की डेफिनेशन टस से मस हुई है और न ही हमारी सोच।
प्रश्न क्या है?
धारा के हटने पर बहुत सारे लोग उत्सव मनाया रहे थे लेकिन यह सोचनीय विषय है कि जिस देश में एक लड़की अपनी पसंद से अंतरजातीय विवाह तक नहीं कर सकती हो क्या ऐसा समाज एक लड़के से दूसरे लड़के या एक लड़की से दूसरी लड़की के प्रेम को स्वीकार करेगी? क्या कानून का बन जाना ही काफी होता है? असल में कानून है क्या? एक किताब में लिखे कुछ आदेश जो केवल कागज़ी हैं? क्योंकि अंततः रहना तो समाज में ही है ना?