कई मुद्दे आये और गए लेकिन इतिहास गवाह है कि न के बराबर जिसमे बदलाव आया है वह है बाबरी मस्जिद मुद्दा।
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चित्र साभार :गुगल |
कहते हैं 1528 में बाबर द्वारा यहां मस्जिद बनवाई गई थी और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार इसी जगह भगवान श्री राम का भी जन्म हुआ था। जिसमे हिंदुओ का कहना है कि यहां भगवान राम के मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण किया गया था। इसी के चलते 1853 में पहली बार इस मुद्दे को लेकर हिन्दू मुसलमानों में हिंसा हुई। 1949 में विवादित ढांचे के केंद्रीय स्थल पर भगवान राम की मूर्ति रख दी गयी। मामला यूंही चलता रहा और 1990 में बीजेपी अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ से उत्तर प्रदेश के अयोध्या तक रथ यात्रा निकाली जिसका परिणाम साम्प्रदायिक दंगे थे। मामला घिसटता हुआ कोर्ट कचहरी के चक्कर काटते हुए 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटा जिसमें एक हिस्सा राम मंदिर, दूसरा सुन्नी वक्फ बोर्ड और तीसरा निर्मोही अखाड़े को दिया गया। 2011 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी गयी। खैर! ये तो रही पुरानी बातें अब मामला यहां तक पहुंचा है कि चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने विभिन्न पक्षों से मध्यस्थता के जरिए इस दशकों पुराने विवाद का सौहार्दपूर्ण तरीके से समाधान किए जाने की संभावना तलाशने को कहा है।
संभावनाएं तलाशने का अर्थ?
लेकिन क्या 'संभावना तलाशने' कह देने मात्र से मुद्दे का हल हो सकता है? या इसमे भी राजनैतिक दांव पेंच खेले जा रहे है? या फिर बात केवल इतनी सी है कि हमारा देश संविधान प्रधान नहीं है भावना प्रधान देश है। क्योंकि संविधान में तो विधान होता है, जो हदें तय करता है, भावना में संभावना होती है। अब समझने की जरूरत ये है कि यहां पर सम्भावना जो है ना वो वोट की है, सम्भावना इस बात की है कि लोग जो हैं वो रोटी, कपड़ा, मकान, अस्पताल, स्कूल के जैसी व्यर्थ बेकार निरर्थक की चीज़ों में बिल्कुल भी अपना ध्यान न लगाएं। जी सम्भावना इस बात की है कि भावनाओं के इस महासागर में सत्ता का जहाज जो है वो आसानी से बिना किसी रुकावट के तैर जाए। सम्भावना इस बात की भी है कि हम संवैधानिक संस्थाओं पर पैसा बर्बाद न करके ऊंची मूर्तियां बनवाएं, शहरों के नाम बदल और सबसे जरूरी मंदिर बनवाएं और गुरुवर अब जो हम हैं सही सम्भावनाओं के साथ एकदम सही रास्तों पर हैं। इसी पर आँख मूंदकर चलते रहें, यही कामना है।
फैसला चाहे जो भी आये लेकिन मंदिर बनने और मस्जिद बनने के बीच जिसकी हार होगी वह होगी इंसानियत।
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