Wednesday, April 29, 2020

तुमको याद रखेंगे गुरु हम.....भगवान कसम


इरफान खान। (स्त्रोत: गूगल)

दरिया भी मैं, दरख़्त भी मैं
झेलम भी मैं, चिनार भी मैं
दैर भी हूँ, हरम भी हूँ
शिया भी हूँ, सुन्नी भी हूँ
मैं हूँ पंडित, मैं इरफान हूँ
मैं था, मैं हूँ और मैं ही रहूंगा। 
इरफान खान का जाना सिनेमा जगत के लिए एक बड़ी क्षति है। सचमुच 'जाना' हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है। इरफान 80 के दशक के बाद से ही धारावाहिकों में दिखना शुरू हो गए थे। इरफान के करियर की शुरुआत टेलीविजन सीरीज से हुई...शुरुआती दिनों में चाणक्य, भारत एक खोज, चंद्रकांता में दिखे। वहीं फिल्मी करियर की शुरुआत सलाम बॉम्बे में एक छोटे से रोल से हुई थी। उन्होंनेे 'मकबूल', 'रोग', 'लाइफ इन अ मेट्रो', 'स्लमडॉग मिल्लीनेयर', 'पान सिंह तोमर', 'दा लंचबॉक्स, 'पीकू' से लेकर 'अंग्रेज़ी मीडियम' तक का सफर तय किया।

1993 में, इरफान ने ज़ी टीवी की 'बनेगी अपनी बात' में अभिनय किया। यह एक कॉलेज-लाइफ बेस्ड सीरीज थी। इरफ़ान के साथ-साथ इसमें अभिनय कर रहे अन्य अभिनेताओं को भी इस सीरीज़ ने बेहद लोकप्रिय बनाया था। इरफान खान नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के स्टूडेंट रहे। और वहां से पास होने के बाद ही उन्होंने अभिनय की शुरुआत की।

2003 में आयी फिल्म  हासिल से इरफान को अभिनेता के रूप में पहचान मिलने लगी। ये वो दौर था जब वह लोगों के दिलों में अपनी जगह बना ही रहे थे। इसमें इरफान ने छात्र नेता रणविजय सिंह का किरदार निभाया था। 'हासिल' का डायलॉग "और जान से मार देना बेटा, हम रह गये ना, मारने में देर नहीं लगायेंगे,भगवान कसम" लोगों की जुबान पर आज तक है। हासिल ने हिंदी फिल्मों को एकबार फिर छात्र और जाति की राजनीति याद दिलाई जिसे कहीं न कहीं फिल्मी दुनिया 70 के दशक में ही पीछे छोड़ चुकी थी।

बॉलीवुड हो चाहे हॉलीवुड हर जगह उन्होंने अपनी छाप छोड़ी। हॉलीवुड की 'द अमेजिंग स्पाइडरमैन' (2012) में इरफान ने एक विलेन का रोल किया था। एक इंटरव्यू में वह कहते हैं कि, 'मेरे पास बच्चों को दिखाने के लिए कुछ नहीं था, ये फ़िल्म मैने बच्चों के लिए बनाई है'। इसके बाद आयी और फ़िल्में फिर चाहे वह 2007 में आयी एंजेलिना जोली की 'ए माइटी हार्ट' हो, 2015 में आयी 'जुरैसिक पार्क' हो या फिर 'द नेमसेक' हो इरफान ने अपने फैंस के दिलों को जीतने में कोई कमी नहीं छोड़ी।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि 2012 में आयी 'द लंचबॉक्स' ने इरफान को प्रसिद्धि के चरम पर पहुंचा दिया था।
अमिताभ बच्चन और दीपिका पादुकोण के साथ 'पीकू' (2015) में इरफान हीरो ना होते हुए भी हीरो लग रहे थे। एक अजीब से अनरोमांटिक सच्चे प्रेमी के रूप में हमेशा की तरह फ़िल्म को बेहतर बनाने में अपनी भागीदारी निभाई।

और? और..
इरफान खान की फिल्मों के पोस्टर।
यार.....ये सब न बस यूँही था..ये सब फॉरमैलिटी वाली बातें थी..असल में तो ये लिखना था कि ......
'मेरे कुछ सपने थे, कुछ प्लान्स थे, कुछ महत्वकांक्षाएं थी और मैं पूरा उसमे खोया हुआ था। अचानक किसी ने मेरे कंधे पर थपकी दी। मैंने पलटकर देखा तो टीटी था। तेज़ी से बदलती चीजों ने मुझे अहसास दिलाया कि कभी भी कुछ भी हो सकता है"।
अपनी आखिरी चिट्ठी में यही कहा था ना तुमने?

तुम चोर, चरसी, पुलिस वाला, सड़कछाप गुंडा, नवाब, डकैत, आतंकवादी, हत्यारा, गैंगस्टर से लेकर एक घनघोर एवरेज प्रेमी, एक मंगेतर, एक पति तक सब किरदार निभा गए। तुम्हारी किसी फ़िल्म में तुम किसी आइडियल रोल में नहीं रहे। तुम्हारा कोई रोल 'आइडियल' नहीं रहा। तुम हर फ़िल्म में एकदम सादे दिखाई दिए। एकदम सिंपल। फिर भी अपने चाहने वालों के दिलों में रंगीनियां भर गए। मैंने किसी फ़िल्म में तुम्हे 'हीरो' की तरह नहीं देखा। गुरु तुम सुपरस्टार और सुपर-एक्टर के भयंकर कॉम्बो थे। हो। और रहोगे।
यहां कुछ ही फिल्मों का ज़िक्र किया है। मुझे याद है तुमने अपनी एक फ़िल्म में कहा था, कि 'आई थिंक वी फॉरगेट थिंग्स, इफ देयर इज़ नोबडी टू टेल डेम'। लेकिन तुम न यार अपनी इन 'कुछ' फिल्मों के माध्यम से मेरे लिए इतनी व्यवस्था तो कर ही गए हो कि मैं तुम्हें याद रख सकूं।
तुमको याद रखेंगे गुरु.....भगवान कसम। क्योंकि हमारे पास चॉइस ही क्या है....

Sunday, April 26, 2020

एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री को उड़ा देगी कोरोना की आंधी!

(स्त्रोत:गूगल)
183 बिलियन (अरब) वाली इंडियन फ़िल्म इंडस्ट्री इस वक़्त सबसे मुश्किल दौर से गुज़र रही है। कहते हैं आंधी जब आती है तो अपने साथ बहुत कुछ लेकर जाती। लेकिन आंधी से हुए नुकसान का असली पता उसके जाने के बाद चलता है। ठीक ऐसे ही कोरोना महामारी वही आंधी है जिसके जाने बाद ही पता चलेगा कि वह कितना कुछ अपने साथ लेकर गई है।
(स्त्रोत:गूगल)
साल 2020 की शुरुआत तानाहजी, छपाक, स्ट्रीट डांसर 3D, पंगा, मलंग, भूत, शुभ मंगल सावधान जैसी फिल्मों से हुई थी। इन फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर ज्यादा धमाल नहीं मचाया था जिसके बाद लोग कुछ अच्छी फिल्मों की आस लगाए बैठे थे। बताया जा रहा है, साल की मोस्ट अवेटेड फ़िल्म 'ब्रह्मास्त्र' जिसमें आलिया भट्ट और रणबीर कपूर दिखने वाले हैं भी रुकी हुई है। फ़िल्म की रिलीज़ डेट 4, दिसंबर, 2020 रखी गयी थी। लेकिन कोरोना को देखते हुए यह भी पटरी से उतरती नज़र आ रही है। 1983 में कपिल देव की कप्तानी में भारत द्वारा जीते गए पहले विश्व-कप पर बन रही रणवीर सिंह स्टारर फ़िल्म '83' 10 अप्रैल को रिलीज़ होनी थी। इसकी सूचना 20 मार्च को ही फ़िल्म के निर्माताओं द्वारा दे दी गयी थी। लेकिन लोकडाउन के कारण फिल्म रिलीज़ नहीं हो पायी।

क्या कहते हैं आंकड़े?
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री पहले ही 1000 करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान झेल चुकी है। इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि बॉक्स ऑफिस पर कमाई 'जीरो/शून्य' है। ट्रेड एनालिस्ट गिरीश जोहर के अनुसार फिल्मों की रिलीज़ डेट 2021 तक खिंचने की गुंजाइश है। फाइनांशियल एक्सप्रेस की रिपोर्ट की माने तो पिछले साल इसी समय 1499.9 करोड़ रुपये की कमाई हुई थी लेकिन इसबार यह सिर्फ 1062.4 करोड़ तक ही पहुंच पायी है।
(स्त्रोत:गूगल)
बॉलीवुड का गणित: 
बॉलीवुड का गणित कहता है कि फ़िल्म निर्माता जब फिल्में रिलीज़ करते हैं तब इस बात का ध्यान रखते हैं कि वह दिन सही हो। अधिकतर फ़िल्म निर्माताओं की कोशिश रहती है कि त्योहारों पर फिल्मों को रिलीज़ किया जाए। इसबार भी वैसा ही होगा। अनुमान लगाया जा रहा है कि लोकडाउन खुलते ही और कोरोना महामारी के जाते ही फ़िल्म निर्माता त्योहारों की तारिखों को झपटने की कोशिश में रहेंगे। अजय देवगन की फ़िल्म 'भुज: दा प्राइड ऑफ इंडिया' और आमिर खान की फ़िल्म 'लाल सिंह चड्ढा' की रिलीज़ डेट का अनुमान अगस्त में लगाया जा रहा है। ईद पर हर साल सलमान खान अपनी कोई फिल्म रिलीज़ करते हैं। ये ठीक ऐसा है कि सलमान के लिए उनकी ईदी फिल्म द्वारा कमाई गयी कीमत होती होती है। इस साल भी अनुमान लगाया जा रहा था कि सलमान की 'राधे-योर मोस्ट वांटेड भाई' ईद पर रिलीज़ होगी ऐसे ही अक्षय कुमार की फ़िल्म 'पृथ्वीराज' दीवाली पर रिलीज़ होनी थी। लेकिन पेंडेमिक के चलते अब इन दोनों का रिलीज़ होना नामुमकिन लगता है। बॉलीवुड के खिलाड़ी अभिनेता अक्षय कुमार की सिर्यवँशी को भी 24 मार्च को सिनेमाघरों में दस्तक देनी थी लेकिन इसका हाल भी इन सभी फिल्मों जैसा ही हुआ।
तेलगु फ़िल्म पोस्टर (स्त्रोत:गूगल)
दूसरी इंडस्ट्री का क्या हाल है?
बॉलीवुड को छोड़ अगर दूसरी फ़िल्म इंडस्ट्री जैसे तेलगु, पंजाबी, भोजपुरी, तमिल, बंगाली आदि का भी यही हाल है। शायद इससे भी बुरा। इंडियन एक्प्रेस की ही रिपोर्ट में फ़िल्म निर्माता श्रीधर रेड्डी कहते हैं कि तेलगु फ़िल्म इंडस्ट्री ने इसबार गर्मियों में 400 करोड़ रुपये तक की कमाई का अनुमान लगाया था लेकिन अब ये मुश्किल है। 
वहीं एक्टिव फ़िल्म प्रोड्यूसर गिल्ड की प्रोड्यूसर दमू कनूरी कहती हैं कि, 'गर्मियों में 3 बड़ी तेलगु फ़िल्म रिलीज़ होनी थी। अगर इनमें से एक का भी अच्छा रिस्पांस आता तो हम 350 करोड़ रुपये तक की कमाई का अनुमान लगाकर बैठे थे। लेकिन अब कोरोना महामारी के चलते सब कुछ पानी में मिल गया है'।
प्रोड्यूसर एसकेएन कहते हैं कि '1000 सीट वाले थिएटर में हर महीने में 10 लाख का नुकसान लोकडाउन की वजह से झेलना पड़ रहा है। नेटफ्लिक्स/हॉटस्टार/वूट जैसे ओटीटी प्लेटफार्म भी उन्हीं फिल्मों को खरीदना पसन्द करते हैं जो हिट होती हैं। लेकिन फिल्मों के रिलीज़ से पहले यह बताना बेहद मुश्किल है कि कौन-सी फ़िल्म दर्शकों को पसन्द आएगी और कौन-सी नहीं।'

Saturday, April 25, 2020

भारत में कोरोना वायरस के मामलें।


Monday, April 20, 2020

वर्चुअल भीड़ की ये जमात खतरनाक है।

ये 'वर्चुअल' दुनियां वाली भीड़ ज्यादा खतरनाक क्यों है?
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भीड़ कोई भी हो, खतरनाक होती है। ये दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी लोगों की यह भीड़ सही-गलत नहीं देखती। ये भीड़ हर जगह होती है और हम सबके बीच ही रहती है। आपके कॉलेजों में, आपके गली-मोहोल्ले में और हां आपके और हमारे फेसबुक/ ट्विटर/व्हाट्सएप्प पर भी। यकीन मानिए ये फेसबुक/ट्विटर वाली 'वर्चुअल भीड़' ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि ये आपको प्रत्यक्ष तौर पर तो नहीं मारती ना ही ये खून खराबा करती है लेकिन ये आपके मन मस्तिष्क में उपजे किसी भी प्रकार के 'अपने से अलग या दूसरे विचार' को पनपने ही नहीं देती है। ये समझते हैं कि आप इन्हीं का हिस्सा हैं लेकिन जैसे ही आप कुछ अलग विचार रख देते हैं ये आप पर बरस पड़ती है। ये महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारावाले लोगों का समूह होता है जो हर दिन, हर वक्त एक्टिव रहती है। इनका काम आदर्शवाद बघारना है और फिर घटिया से घटिया उपयोगितावादी की तरह व्यवहार करना है। अपने आपको आदर्शवादी और त्यागी घोषित करने का ये ट्रेंड खतरनाक है।

उस प्रत्यक्ष लोगों वाली भीड़ का इस्तेमाल तो नेपोलियन, हिटलर ने किया ही था लेकिन इस वर्चुअल भीड़ का इस्तेमाल ये आज की इंफ्लुएंसर बनी और कुछ कथित बुद्धिजीवियो की जमात कर रही होती है। यह वर्चुअल भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो केवल और केवल समाज में उन्माद और तनाव पैदा करने के लिए होती है। फिर ये भीड़ आपको अपने साथ लेकर विध्वंसक काम करवाती हैं जैसा कि अब हो रहा है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है। खैर, अभी भी करवाया जा रहा है।

लेकिन हम आने वाली पीढ़ियों को समझना होगा कि हमारे और आपके आस पास मौजूद ये वर्चुअल दुनिया वाली भीड़ केवल आपको दलदल में फंसाने का काम कर रही हैं, दुनिया में जो क्रांतियाँ हुई हैं, सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उनमें युवकों की बड़ी भूमिका रही है।

मैं मानती हूँ कि इन्हें अपना लेना आसान होता है। इनकी हां में हां कर देना बेशक आसान है। मगर दोस्त जो पीढ़ी ऊपर की पीढ़ी की पतनशीलता अपना ले क्योंकि वह आपकी सुविधा में है और उसमें सुख है तो वह पीढ़ी कोई परिवर्तन नहीं कर सकती। ना तुम, ना मैं और ना कोई और ये परिवर्तन कर पायेगा।
दोस्त, मत बनने दीजिये खुद को इनका हथियार। मत बनिये इनकी कठपुतली।

#virtualcrowd #virtualhatred

Sunday, April 19, 2020

'असुर'- अंत ही आरंभ है।

"बचपन में हम सभी ने भगवान और शैतान की कई कहानियां अपनी दादी-नानी से तो सुनी ही हैं। अगर अच्छाई के रास्ते चलेंगे तो भगवान मिलते हैं और बुराई के रास्ते चलेंगे तो शैतान का मिलना तय है। लेकिन अगर असल में हम सोचें तो अच्छाई और बुराई दोनों ही हम सभी के अंदर बैठी होती है। बस कब किसको बाहर निकालना है ये हम तय करते हैं।"

आपको 2014 में सनमजीत सिंह तलवर के निर्देशन में आयी फ़िल्म ढिश्कियाऊं याद है? ऑनी सेन के निर्देशन में बनी Voot पर आयी 'असुर' वेब सीरीज आपको उसकी याद दिला सकती है। हालांकि वेब सीरीज के लेखक गौरव शुक्ला ने इसे लिखा बेहद अलग ढंग से है और इसकी एंडिंग भी अलग है लेकिन फिर भी कहानी आपको उस फ़िल्म की याद जरूर दिलवाएगी। सीरीज़ खत्म होने पर आपको ऐसे लगेगा जैसे ये आप पहले ही किसी फ़िल्म में देख चुके हैं। ये कहानी आपको डार्क नाइट के जोकर की भी जरूर याद दिलाएगी।  
Voot पर रिलीज़ हुई हिंदी वेब-सीरिज़ 'असुर- वेलकम टू योर डार्क साइड' एक मायथोलॉजी सस्पेंस थ्रिलर है। ये सीरिज़ कली-कल्कि अवतार वाली कहानी, देव-असुर की कहानियां जो शायद आपने अपनी दादी या नानी से ही कभी सुनी होगी ऐसे स्टोरीज़ को दोबारा से याद दिलवाती हैं। इसमें अरशद वारसी और अधिकतर इंडियन सिरियल में ही दिखने वाले बरुन सोबती मुख्य किरदार में हैं

क्या है वेद-पुराण वाला कनेक्शन?
श्रीमद्भागवत-महापुराण के 12वें स्कंद के में श्लोक लिखा है-
सम्भलग्राममुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः।
भवने विष्णुयशसः कल्कि: प्रादुर्भविष्यति।।
अर्थात: शम्भल ग्राम में विष्णुयश नाम के एक ब्राह्मण होंगे। उनका ह्रदय बड़ा उदार और भगवतभक्ति पूर्ण होगा। उन्हीं के घर कल्कि भगवान अवतार ग्रहण करेंगे।
कुछ ऐसा माना जाता है कल्कि का रूप।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु के दसवें अवतार 'कल्कि' का अवतरण कलयुग के अंत में होना है। श्रीमद्भागवत गीता में भी कहा गया है कि "जब-जब इस पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है और अधर्म आगे बढ़ता है, तब-तब मैं इस पृथ्वी पर जन्म लेता हूँ। सज्जनों और साधुओं की रक्षा के लिए, दुर्जनो और पापियों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में जन्म लेता हूँ"
बस ये कहानी बार-बार आपको इन्हीं दो श्लोकों की याद दिलवाती रहेगी।

कहानी क्या है?
कहानी 'शुभ' नाम के एक ऐसे एक्स्ट्रा-आर्डिनरी बच्चें के बारे में है जो गलत नक्षत्र में पैदा हो जाता है (उसके पिता के अनुसार)। इसी कारण वह उसे बचपन से ही 'असुर' कहने लगता है। ये बात उसके दिमाग में बैठ जाती है और वो खुद को मायथोलॉजीकल केरैक्टर 'कली' मानने लगता है। वह बड़े होकर दूसरों को मारना शुरू कर देता है इस आस में कि विष्णु का अवतार कल्कि तक उसका सन्देश जाए। सीबीआई को जैसे ही इसकी भनक लगती है वो इसकी तहक़ीक़ात शुरू कर देते हैं। 10 साल पहले सीबीआई छोड़ चुके विदेश में रह रहे निखिल नायर के फ़ोन में मरे हुए इंसानों के कोऑर्डिनेट आने लगते हैं (निखिल नायर किसी ज़माने में डीजे के साथ काम कर चुका होता है और आपसी कलह की वजह से सीबीआई छोड़कर चला जाता है)। वह इसकी जानकारी अपने पुरानी कलीग लोलार्क दुबे को देता है। धनंजय राजपूत 'डीजे' का किरदार निभा रहे अरशद सीबीआई में सीनियर होते हैं और ये इन केस को हैंडल करने का जिम्मा उन्हें दिया जाता है। कुछ दिन बाद जाकर पता चलता है कि इन लोगों को मारने वाला प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर इन दोनों से (निखिल और डीजे) जुड़ा होता है। बाद में जाकर निखिल को किन्ही कारणों से विलेन का साथ देना पड़ता है और वो उसके साथ मिलकर लोगों को मारना शुरू कर देता है। कहानी में ऐसे ही चूहे बिल्ली जैसा खेल चलता रहता है। अब ये पूरी कहानी तो खैर आपको सीरीज़ देखने पर ही समझ आएगी।

कहानी कहाँ कहाँ निराश करती है?
1. कहानी में एक साथ बहुत घोच-पोच हो रहा होता है जिसे समझने में काफी दिक्कत होती है। क्योंकि कहानी में सब चीज़े बहुत इंस्टेंट हैं तो इसमें नज़रें हटी, दुर्घटना घटी जैसा सीन है। अगर आप एक भी सीन मिस करते हैं तो हो सकता है आपको अगला सीन समझने में दिक्कत हो।
2. कहानी में फीमेल रोल बहुत कम दिखाया गया है। हालांकि लीड की पत्नी नैना का किरदार निभा रही अनुप्रिया गोइन्का का सीरीज के आखिरी 2 एपिसोड में फायरवॉल सिक्योरिटी तोड़ने और फिर असुर को ट्रैक करने वाला रोल दिखाया गया है बावजूद इसके उसका स्क्रीनटाइम बेहद कम है। इसका दूसरा किरदार है नुसरत सईद का। रिद्धि डोगरा यह किरदार निभा रही है। नुसरत सीबीआई में ही काम करती है। फॉरेंसिक डिपार्टमेंट को सम्भाल रही सीनियर पोस्ट पर है, बाद में जाकर प्रमोशन भी होता है लेकिन फिर भी एक दिल टूटा आशिक़ ही नज़र आती है। एक और किरदार भी है आयुषी मेहता खैर वो तो बस नाम के लिए ही नज़र आ रही हैं।
3. कहानी में ये दिखाने की पूरी कोशिश की है कि शुभ मायथोलॉजी को असली मानकर खुद को असुर 'कली' मानता है और कलगी अवतार/ विष्णु तक अपना सन्देश पहुँचाना चाहता है और इसीलिए वह लोगों की हत्या कर रहा है। लेकिन कहानी के कुछ पार्ट में कहीं-कहीं दूसरा या तीसरा लॉजिक भी दिखाया जाता है जिसमें शुभ बदला लेना चाहता है। या शायद जबरदस्ती कहानी को खींचने की कोशिश की गयी है। 
निखिल नायर और दिग्विजय राजपूत।
कहानी की एंडिंग का भंड़ाफोड़ करें? 
कहानी के आखिर में दिखाया गया है कि सीबीआई में काम करने वाला रसूल ही 'शुभ' है। लेकिन बनारस के जेल में जब आग लग जाती है तब चार लोग मरते हैं (शुभ को जोड़कर)। उसमें से तीन लोग (काली आंखों वाला लड़का, रसूल और केसर) आ चुके हैं। अभी तक भी चौथा इंसान नहीं दिखाया गया है। उसकी एंट्री अभी बाकी है जो हो सकता है असली 'शुभ' हो। तो मेरे खयाल से असली शुभ की पहले सीज़न में एंट्री नहीं हुई है। ये तीनों बस फॉलोवर्स भर हैं। इसका एक और कारण भी है कि जब रसूल लोलार्क को उस जगह लेकर जाता है जहां निखिल नायर को रखा गया था वहां डायरी में से एक बचपन की घटना पढ़ते हुए वो बचपन में की चीटिंग का जिक्र करता है जिसमें उसकी मैडम उसे फेल कर देती है। टेक्निकली शुभ एक एक्स्ट्रा-आर्डिनरी बच्चा होता है। उसे चीटिंग की क्या जरूरत? 
अंत ही आरंभ है।
मुझे लगता है अच्छे या बुरे इंसान जैसा कोई कांसेप्ट ही नहीं है। हमारे हालात तय करते हैं कि हम अच्छे हैं या बुरे। चलिए उदाहरण के तौर पर ही देखिए....आपके घर में आ कर चोरी करने वाला इंसान आपके लिए 'बुरा इंसान' हो सकता है... लेकिन अगर उस इंसान के परिवार की साइड से देखें तो उनका पेट भरने वाला वो इंसान एक 'अच्छा इंसान' है। 
खैर...काफी अच्छी वेब-सीरिज़ है। आपके दिमाग के घोड़े दौडवाने का दम रखती है। देख डालिये। अगर आप 'मैं हिंदी वेब-सीरिज़ नहीं देखती/देखता' वाले हैं तब भी ये आपको निराश नहीं करेगी पक्की बात है। या अगर आप 'ब्रो! सेक्रेड गेम्स जैसी फाड़ वेब-सीरीज़ नहीं बन सकती इंडिया में' वाले हैं तब तो ब्रो पक्का देख ही डालिये। 
पहला सीज़न देखकर ही अगर आप सोच रहे हैं कि आप कहानी समझ गए हैं तो बस यही कहना चाहूंगी कि ए-दिले नादान 'शुभ' का आना बाकी है क्योंकि 'अंत ही आरम्भ है'।

भारत के मेले: छत्तीसगढ़ का 'मड़ई मेला' जहां मिलता है औरतों को संतान प्राप्ति का आशीर्वाद

ये छत्तीसगढ़ में लगने वाला एक मेला है, गंगरेल मड़ई। दीवाली के बाद पहले शुक्रवार को यह मड़ई मेला आयोजित करवाया जाता है। इस साल भी लगा था। जो इन ...