Friday, May 8, 2020

Lockdown Days : 2


पता नहीं क्यों...कभी कभी सबकुछ शांत हो जाता है...मगर शांत शब्द लिखने के बाद बोध होता है कि वह गलत है, कि लिखने के बाद ही यह झूठा-सा हो गया। जो सच है, जो रात की उस घड़ी में सच था, वह महज़ अर्ध-स्वप्नों, स्मृतियों का पुंज रह गया है- आकारहीन, स्वरहीन-धुंधली धुंध के लोंदे-सा! कुछ दिनों पहले एक पुल था- एक ऐसा पुल जो जितना-कुछ जोड़ता था। हम-सबके बीच।
सोचती हूँ! नहीं आज नहीं, उस रात सोचा था जब वह लौ बिल्कुल अकेली थी, बिल्कुल नंगी थी, जिसे मैंने अपने अस्तित्व से ढंका था। लेकिन अब तो कुछ भी ऐसा नहीं रहा है, जिस पर उंगली रखकर यह कहा जा सके, कि यह आज है, यह कल। यह वह कल है, जो कभी जीवित था और अब बीत-सा गया है।
ना जाने क्यों मुझे अचानक ऐसा लग रहा है बरसों से वो खोई हुई चप्पल, किसी गुमनाम कोने से उछलकर सीधा मेरे मुँह पर आ गिरी है। मुझपर हंस रही है।
और हम क्या कर रहे हैं?
यार... हम बस हर नई चीज पर झपट रहे हैं, खुद नया बनने के लिए नहीं बल्कि उसे बोसीदा बनाने के लिए।
हम बस इस घिसटती हुई दुनिया में आंख बंद किये उम्र की लकीर पर खामोश चलते जा रहे हैं। बस चलते जा रहे हैं। एक दूसरे से टक्कर हो भी रही है तो कांधा बचाकर आगे घिसट रहे हैं। जिंदगी धीरे धीरे खिसक रही है। सच कहूँ तो, ये वक्त इस कदर इतने हौले हौले चोरी छिपे ना चलता तो मैं इतनी काहिल कभी ना होती।

तो ऐसा करते हैं कुछ देर सो जाते हैं। थोड़ी देर ही सही। आंख बन्द ही कर लेते हैं। नींद के सिरहाने सारी तकलीफें बुझ जाती हैं, कितने डर झर जाते हैं। तो कह दो खुद से कि ये वक़्त भी उसी में गुज़र जाएगा। सब ठीक हो जाएगा।

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