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मेवात का एक गांव |
एक उजड़ा-सा गांव है, घरों की छतों और गली की मुंडेरों से झांकती कुछ घूँघट ओढ़े महिलाएं हैं, हमे देखते कुछ मर्द हैं, घरों में इंडक्शन या गैस नहीं है पुरानी धरोहरों को समेटे चूल्हे हैं। दुनियां की उलझनों से दूर बेफिक्र टायर से खेलते बच्चे हैं, अपनी पुश्तैनी विरासत को समेटे पुराने ज़माने वाली इमारतें हैं शायद पीढ़ियों से इनमें कोई बदलाव नहीं हुआ है। संकीर्ण गलियां हैं जिनके छोर पर छोटे मोटे खाने पीने के सामान की दुकानें हैं, मेट्रोपोलिटन सिटीज़ की चमचमाहट और रोशनी से दूर जीवन कितना शांत नज़र आता है न और...और पीछे एक पहाड़ है। कितना अच्छा-अच्छा लग रहा है न सब एकदम ड्रीमलैंड जैसा?
लेकिन,
इतना अच्छा नहीं है सब। आप इनकी दुनियां में झाकेंगे और करीब से देखेंगे तो जान पाएंगे कि ये जो औरतें जिन्हें आप खेतों में काम करता देख रहे हैं ये इनकी स्वतंत्रता नहीं मजबूरी है। ये जो घूँघट इन्होंने ओढ़े हैं ये परम्पराएं नहीं इनकी बेड़ियां हैं। ये जो बच्चे बेफिक्र टायरों से खेलते नज़र आ रहे हैं इनमें से कई ऐसे हैं जिनके पैदा होने के बाद ही इनकी माँओं को बेच दिया गया था। ये जो छोटी छोटी दुकानें बनी है गलियों में केवल यही इनके जीवनयापन का स्त्रोत है। ये जो पुरानी धरोहर के नाम पर चूल्हे इनके घरों में है ये सरकार की तमाम नाकामयाब योजनाओं की एक झलक भर है, ये इमारतें जिन्हें आप पुश्तैनी समझ रहे हैं जिनमें बरसों से कोई बदलाव नहीं किया गया है ये इनके पिछड़ेपन और गरीबी की निशानी है।
ये है हरियाणा का 'मेवात'। दिल्ली के आईटी सेक्टर गुरूग्राम से महज 60 किलोमीटर की दूरी पर सटे मेवात की अपनी अलग कहानियां हैं। चुनावी रथ पर सवार, विकास का चौला ओढ़े यहां नेता केवल चुनावों में ही देखने को मिलते हैं। सबका अपना स्वार्थ है। मुस्लिम बाहुल्य इस इलाके में हरियाणा के किसी भी दूसरे जिले से ज्यादा गरीबी दिखाई देती है। सरकार की कथित विकास की तमाम योजनाओं को मुँह चिढ़ाते यहां के हालात उथल पुथल नज़र आते हैं। ईजिली अवेलेबल ट्रांसपोर्ट का हवाला देती सरकार की कोई बस, कोई ग्रामीण सेवा, कोई व्हीकल मुझे नज़र नहीं आ रहा है। सरकार की ग्रामीण सड़क योजना की सड़क अभी तक बस बाहर बाहर तक ही पहुँच पाई है। गांव के अंदर सड़के नहीं बनी है। शायद नेता लोग बाहर से ही निकल जाते होंगे।
हालात को छोड़ दिया जाए तो हमारा ध्यान आकर्षित करती है यहां की एक प्रथा 'पारो प्रथा' यही कोई 4-5 साल पहले एक किताब पढ़ी थी जिसमें इसका जिक्र था।
'पारो'...नहीं ये देवदास वाली पारो नहीं हैं। देवदास की पारो को तो प्यार मिला था, इज़्ज़त मिली थी। इन्हें मार-पिटाई, जोर-जबरदस्ती के सिवा कुछ नहीं मिलता।
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गांव की सबसे बूढ़ी दादी, 85 साल की सलीमन बताती हैं कि उन्हें याद नहीं उनका माइका कहाँ है, उन्हें कहाँ से लाया गया, अब उन्हें उनका घर का रास्ता भी याद नहीं। अपनी भाषा में वह कहती हैं कि 'जब से होश सम्भाला है तब से इसी गांव में हूँ। पास खड़ी एक दूसरी औरत बताती हैं कि 'ताई 7 साल की उम्र में गांव में बिहा कर लायी गई थी'। पति बहुत पहले ही गुज़र गया था। 7 बेटियां हैं जिनमें से 2 उन्ही के साथ रहती हैं। 'मैं बहुत बदनसीब हूँ' यह कहते हुए वह बताती हैं कि एक बेटा हुआ था लेकिन वो मर गया था। अब घर में केवल खाने भर का ही राशन है'। सरपंच को कहा था राशन कार्ड के लिए लेकिन हम गरीबों की कौन सुनेगा?
पास ही में एक दसवीं क्लास का बच्चा भी खड़ा था। जब उससे स्कूल की पढ़ाई लिखाई के बारे में पूछने लगी तो पीछे से एक औरत बोली कि इसकी माँ को बहुत साल पहले आगे बिहा दिया था (उनका मतलब शायद बेचने से था)। मेवात के इलाकों में ये आम बात है। ब्राइड ट्रैफिकिंग के सबसे ज्यादा केस यहीं मिलते हैं। इसमे दूसरे प्रदेश से लड़कियां, बच्चियां, औरतें यहां लायी जाती हैं केवल अपना मतलब साधने के लिए। फिर चाहे वह किसी अधेड़ उम्र के बुड्ढे की यौन इच्छाओं को पूरा करने लिए लायी गयी हों, बेटे की चाह में लायी गयी हों, घर और खेती का काम करवाने के लिए लायी गई हों या किसी से दूसरी शादी के लिए लायी गयी हों, मतलब पूरा हो जाने के बाद इन्हें आगे बेच दिया जाता है।
45 साल की सुशीला का भी यही हाल है। लेकिन उसे याद है कि 12 साल की उम्र में उसे राजस्थान के एक पिछड़े इलाके से कुछ पैसों के लालच में यहां लाया गया था। वह दूसरी शादी के तौर पर लायी गयी थी। हालांकि उसके बाद से ही उसके परिवार का उससे कोई कांटेक्ट नहीं है। न ही कोई आजतक देखने आया है।
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गट्ठर उठाये महिलाएं |
मेवात में एंट्री करते ही गोद में अपने बच्चों को उठाये खेतों में काम करती, सर पर गट्ठर उठाये महिलाएं आसानी से दिख जाएंगी। मुश्किल होगा तो मर्दों का काम करता हुआ दिखना। मर्द दिखेंगे जरूर लेकिन कहीं कोई ताश के पत्ते खेलते हुए, कहीं कोई हुक्का गुड़गुड़ाते हुए और कहीं बस घरों में खाटो पर आराम फरमाए।
सालों से सरकार 'पारो' का बचाव करती आयी है केवल ये कहकर कि लड़कियों की कम संख्या के कारण दूसरे प्रदेशों से लड़कियां लायी जाती हैं। दिन में औरतों को कृषि कार्य व रोटी बनाना और रात में मर्द के बिस्तर पर होना उनका जन्मजात कार्य माना जाता है।
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गांव के बच्चे |
एक लगभग 32 साल की महिला कहती है कि 'बीरबानी घर के कामों और बच्चों को सम्भालने से लेकर खेत जोतना, काटना, बुवाई करना सबकुछ खुद करती हैं, मर्द कुछ नहीं करते'। हालांकि एक महिला बचाव में कहती हैं कि कुछ मर्द बाहर ही रहते हैं दूसरी जगह काम करने चले जाते हैं फिर रविवार को घर आ जाते हैं। विडम्बना है कि जिस महिला को आजतक केवल एक वस्तु जो केवल उपभोग के लिए ही प्रयोग में लायी जा रही ही वाला जीवन बीताना पड़ रहा हो वहां भी मर्दों को बचाया जा रहा है।
दो प्रकार के विवाह हमारे यहां माने जाते हैं एक विवाह वो जिसमें दान-दहेज लेकर लड़की को लाया जाता है और दूसरा जिसमें एक रकम चुका कर लड़की से विवाह किया जाता है। इसमें से ज्यादा चिंताजनक दूसरा विवाह है क्योंकि इसमें सम्भावनायें रहती हैं कि एकदिन ज्यादा रकम मिलने पर वो मर्द अपनी मर्ज़ी से उस लड़की को किसी और के साथ जोड़ सकता है।
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घूंघट ओढ़े एक लड़की |
कहीं सुना था कि गांव में एक नई नवेली बहु को शादी के 2 हफ्ते बाद ही किसी दूसरे के यहां दे दिया (बेच दिया) गया था, शायद उसे असम से लाया गया था।
सरकार और इस प्रथा के पक्षधरों का सबसे बड़ा तर्क यही रहता है कि यह एक जरूरत है, मजबूरी है।
मेवात में आज भी कई पारो केवल यौन दासियों का जीवन व्यतीत कर रही हैं। भैंसों की तरह इन्हें भी बेच दिया जाता है। ये लड़कियां बिकती हैं। बार-बार बिकती हैं। तबतक बिकती हैं जबतक यह यौन कर्म को ही अपना नहीं लेती, या भाग नहीं जाती। कई पारो भाग जाती हैं। इन बेड़ियों से, इन परम्पराओं से, इन मजबूरियों से, वस्तु की तरह प्रयोग किये जाने से और कुछ-कुछ अपनी ज़िन्दगी से भाग मौत को अपना लेती हैं। जो पारो रह जाती हैं वो ऐसे ही गुमनामी में अंधेरे में इन मर्दों के बोझ तले दबी रहती हैं ज़िन्दगी भर और खत्म कर देती हैं खुद को 'पारो प्रथा' में।
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फोटो साभार: अज़हर अंसार |
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