"सुना है मस्जिद की मीनार पर चढ़कर एक युवक ने झंडा फैराया है? अच्छा है। तो फिर मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर और गुरुद्वारा...चारों धर्म के झंडे लगा दीजिये इन इमारतों की सबसे ऊंची वाली चोटी पर। पोथ दीजिये इन सभी धार्मिक स्थलों की दीवारों को किसी एक रंग से और बड़े बड़े अक्षरों में लिख दीजिये कि 'यहां भगवान वास करते हैं। "
दंगो के बाद जाफराबाद मेट्रो स्टेशन।
जले हुए डीआरपी स्कूल की क्लास।
जाफराबाद, मुस्तफाबाद, भजनपुरा, शिव विहार, करावल नगर और दिल्ली के उन तमाम दंगा प्रभावित क्षेत्रों की छोटी-बड़ी गलियों में चलते चलते मेरी आंखें अपने आप खंडहर हुई इमारतों पर उठ जाती हैं। मैं आर्किटेक्चर की विशेषज्ञ नहीं हूँ लेकिन इन जले हुए, खंडहर हुए घरों को देखकर कह सकती हूँ कि ये खूबसूरत रहे होंगे। ये घर, ये इमारतें सब गवाह है दिल्ली में 3 दिन तक दिन-रात चली उस निर्मम हिंसा का।
शिव विहार का डीआरपी स्कूल।
शिव विहार की शुरुआत में ही एक से बाहरवी तक का यह स्कूल 'डीआरपी' भी इसी हिंसा का शिकार हुआ है। जनरल नॉलेज की किताबें, कुलदीप 'रोल नम्बर 9' की ये प्यारी सी ड्राइंग, ब्लू-पिंक और अलग अलग रंगों की प्रोजेक्ट फाइल्स, क्लास रूम के बाहर लिखा वो 'जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है' वाला कोट, वो दीवारों पर लिखे क, ख, ग, ब्लैक बोर्ड पर लिखी 1 से 10 तक की गिनतियाँ, ये जली हुई डेस्क, राख से काले हुए ये सफेद आधे फटे जूते...गवाही दे रहे हैं उस मंजर की जो 24 फरवरी को यहां घटित हुआ था।
डीआरपी स्कूल की क्लास।
स्कूल की जली हुई बेंच।
मोहल्ले के आखिरी छोर पर राजधानी स्कूल का पीछे का पोर्शन पड़ता है। जी! राजधानी वही स्कूल है जिसकी छत पर से न जाने कितने पेट्रोल बम, आग लगाने की चीज़ें, तमाम कांच की बोतलें और न जाने हिंसा करने के प्रयोग में आने वाले तमाम औजार मिले हैं। राजधानी स्कूल डीपीआर स्कूल की दीवार से लगता हुआ स्कूल है। स्थानीय निवासी बताते हैं कि 'इसकी प्लानिंग 23 की रात को ही कर ली गयी थी। मैनेजर की मिली भगत है'। एक औरत तकरीबन 42 साल की आंखों में आंसू लिए अपने घर की ओर इशारा किये कहती है कि 'मेरा पति 3 महीने पहले ही खतम हो गया है। बताओ मेरे घर का इतना नुकसान हुआ है। सब चीज़े जला दी गयी हैं। मैं कहाँ से भरपाई करूंगी?' इनका घर ठीक स्कूल के पीछे है। स्कूल की छत से ही पेट्रोल बम इनके घरों में और सामने वाले गैराज में फेंके गए थे।
राजधानी पब्लिक स्कूल।
बच्चों की ड्रॉइंग्स।
मैं खड़ी हुई सोच रही हूँ कि इन ढह गयी इमारतों के मूक पत्थर, घर जो खाली हैं और घर जिनकी खिड़कियों से अपरिचित आंखें झांक रही हैं। यह सब छोटे छोटे पुल हैं, हमे इस मंजर और हिंसा के असली ज़िम्मेदार तक पहुंचाने का। इनकी ईट चूना, पत्थरों से, आवाज़ों, प्रेम, रिश्ते, रंगों और संकेतों से बनी है कि हम तो एक हैं ना? मैं यहां की निवासी नहीं हुं इसलिए केवल इन्हें छूकर ही महसूस कर सकती हूँ।
राहुल सोलंकी का प्रोफाइल फोटो
घटना 24 फरवरी की ही है। राहुल सोलंकी गली के छोर पर खड़ा इस पूरे उपद्रव को देख रहा था अचानक से एक उपद्रवी ने उसपर गोली चला दी। वह वहीं मर गया। घर पास ही में है। पड़ोस के ही कुछ लोगों ने फोटो दिखाई है। गोली लगी हुई है गर्दन के नीचे । मेरी हिम्मत नहीं हुई उनके घर जाने की। वापिस वही घाव मैं नहीं कुरेदना चाहती। हम घर के दरवाजे से ही वापिस हो चले। वैसे कहने को बहुत कुछ था। जिस गली, मोहल्ले, इलाके को दोपहर की चंद घड़ियों में ही राख और ईंटों के ढेर में बदल डाला था, जिसके विनाश की खबर बिजली सी देश-दुनियां के हर कोने में फैल गयी थी लेकिन प्रशासन के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी थी उसके संबंध में कुछ भी कहने के लिए शब्दों की कमी नहीं है। लेकिन नहीं। आज नहीं। बस। आज नही....कभी और....
जला हुआ गोदाम।
मुझे एक बहुत पहले की शाम याद हो आती है। आधी रात के वक्त एक दोस्त ने अजीब सा प्रश्न किया था- कभी तुमको किसी शहर को चुनने की स्वतंत्रता दी जाए तो कौन-सा शहर चुनोगी? मुझे याद है मैने बिना सोचे समझे 'दिल्ली' कहा था। दिल्ली अधिकतर को पसन्द नहीं आता। लेकिन मैं हमेशा कहती हूँ कि कुछ शहर होते हैं जिन्हें रफ्तः रफ्तः पहचानना होता है। उनके खुले हिस्सों और बन्द झरोखों के पीछे एक प्यारा सा सच छिपा होता है। उसे निरावृत करना पड़ता है, सम्भल-सम्भलकर सधे हाथों से। दिल्ली ऐसा ही शहर है।
अपने जले हुए गोदाम को देखते रिज़वान।
दंगे में क्षतिग्रस्त हुई दुकानें।
भजनपुरा मेट्रो स्टेशन के पास में ही एक पेट्रोल पंप आता है। पूरी तरह से जल चुका है...नहीं...'जला दिया गया' है। उसी पंप पर काम करने वाले सुमित से हमने बात की। सुमित के हाथ, पैर और आंख पर चोट लगी है। उस दिन का मंजर बताते हुए कहते हैं 'सामने से कम से कम हज़ारों की भीड़ में लोग आये। रोड पर पत्थर फेंकने शुरू हुए। पेट्रोल बम, पत्थर और उनके हाथ में जो भी था वो सब फेंकने लगे। हमने पेट्रोल पंप बन्द किया लेकिन वो अंदर चले आये।' पुलिस के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि पुलिस के लगभग 3 4 लोग वहां मौजूद थे लेकिन वो भीड़ उनपर भी पत्थर बरसाने लगी। फायर ब्रिगेड का ज़िक्र करने पर वहीं पर काम करने वाले कहते हैं कि सीएए के विरोध में रोड जाम थी। इसकी वजह से फायर ब्रिगेड नहीं आ पाई।
चांद बाग के सामने वाला पेट्रोल पंप।
इसी पेट्रोल पंप के सामने चांद बाग़ इलाका है। अपोजिट रोड पर ज़ोहान ऑटोमोबाइल्स नाम की एक दुकान है। पूरी तरह से जली हुई है। उसके बराबर में या उससे लगती कोई भी दुकान को चिंगारी तक नहीं लगी है। कहते हैं हिंसा का पैटर्न नहीं होता। हिंसा तो हिंसा होती है ना? लेकिन, यहां पैटर्न है।
खजूरी खास का पुलिस सहायता केंद्र।
थोडा और आगे चलेंगे तो थाना खजूरी खास है उसी से सटी हुई एक मज़ार भी 24 फरवरी को हुए दंगो की गवाह बनी है। जली हुई है पूरी। पुलिस सहायता केन्द्र थाना भी जलाया गया है। उसी के लगती रोड पर नज़र घुमाएंगे तो नरेश अग्रवाल की बालाजी स्वीट्स, करीम चिकिन कार्नर और पूरी फल मंडी में आग लगाई गई है। नरेश अग्रवाल कहते हैं कि 'मेरी दुकान में कल यानी 28 मार्च की रात को फिरसे लूटपाट हुई है। मेरी दुकान में एक ड्रम पड़ा है। मैं नहीं जानता ये क्या है? किसने रखा? पुलिस की तैनाती यहां पिछले 3 दिन से है फिर कैसे कोई दुबारा मेरी दुकान में आ रहा है?' लगभग 15-20 लाख का नुकसान हुआ है।
रिज़वान की दुकान जिसमें मंगलवार को आग लगाई गई।
मुस्तफाबाद मेट्रो स्टेशन और जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के बीच में ही अंदर जाकर एक गली दिखेगी। बाहर से शायद दिखेगी भी नहीं। फल की रेड़ी पर बैठे एक अंकल कहते हैं कि 'यहां भी सब जलाया गया है, जाओ अंदर देख आओ'। ये एक गोदाम है। फल, बेग, कपड़े स्टॉक किये जाते हैं यहां। अब जल चुके हैं। पूरी तरह से। दुकान के मालिक मुमताज़ 8 साल से दुकान कर रहे हैं। कहते हैं कि'24 की रात भी सौ-डेढ़ सौ लोग यहां आए थे। लेकिन मंगलवार को दिन में 12-1 बजे आग लगाई गई। 5-6 लाख तक का नुकसान हुआ है हमे। फल वालों की रेडिया जला दी हैं, और कुछ फल लूटकर बाहर ले गए बांट दिए थे'। क्षणभर के लिए विश्वास नहीं होता कि किसी ऐसे ही दिन, ऐसी ही शांत घड़ी में, यह खामोश गलियां(जो बाहर मेन रोड से दिखती तक नहीं हैं), गलियों के ऊपर सिमटा इस इलाके का नीला आकाश, आतंकियों की गोलियों, विस्फोटकों के बीच घिर गया होगा।
पार्किंग क्षेत्र में खड़ी अधजली गाड़ियां।
ऐसी ही ना जाने कितनी हिंसाओं की कहानियां हैं। हर किसी ने कुछ न कुछ खोया है। किसी ने परिवार, किसी ने पैसा, किसी ने सामान, किसी इस भरोसा और हम सभी ने इंसानियत।
खजूरी खास में मज़ार को भी जलाया गया था।
मैं अभी लौटी हूँ। उस शाम से-जो कुछ बीत गयी है, कुछ बीतने को है- एक झीना सा नाता जुड़ गया है। ये कहानियां यही रह जाएं तो बेहतर है। मैं चाहती हूँ टूट जाए, लम्हों के अंधेरे में बिखर जाएं। मैं जानती हूँ मेरा मौन इसे बखूबी समेट लेगा। हर बार यही तो होता है, मेरा मौन सबकुछ अपने अंदर समेट लेता है। '1984', '2002' और अब ये '2020'.... इसे भी समेट लेगा।
अद्भुत अपूर्वा!
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