Saturday, February 29, 2020

दिल्ली दंगे: भाग-1

"सुना है मस्जिद की मीनार पर चढ़कर एक युवक ने झंडा फैराया है? अच्छा है। तो फिर मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर और गुरुद्वारा...चारों धर्म के झंडे लगा दीजिये इन इमारतों की सबसे ऊंची वाली चोटी पर। पोथ दीजिये इन सभी धार्मिक स्थलों की दीवारों को किसी एक रंग से और बड़े बड़े अक्षरों में लिख दीजिये कि 'यहां भगवान वास करते हैं। "
दंगो के बाद जाफराबाद मेट्रो स्टेशन।

जले हुए डीआरपी स्कूल की क्लास।
जाफराबाद, मुस्तफाबाद, भजनपुरा, शिव विहार, करावल नगर और दिल्ली के उन तमाम दंगा प्रभावित क्षेत्रों की छोटी-बड़ी गलियों में चलते चलते मेरी आंखें अपने आप खंडहर हुई इमारतों पर उठ जाती हैं। मैं आर्किटेक्चर की विशेषज्ञ नहीं हूँ लेकिन इन जले हुए, खंडहर हुए घरों को देखकर कह सकती हूँ कि ये खूबसूरत रहे होंगे। ये घर, ये इमारतें सब गवाह है दिल्ली में 3 दिन तक दिन-रात चली उस निर्मम हिंसा का।
शिव विहार का डीआरपी स्कूल।
शिव विहार की शुरुआत में ही एक से बाहरवी तक का यह स्कूल 'डीआरपी' भी इसी हिंसा का शिकार हुआ है। जनरल नॉलेज की किताबें, कुलदीप 'रोल नम्बर 9' की ये प्यारी सी ड्राइंग, ब्लू-पिंक और अलग अलग रंगों की प्रोजेक्ट फाइल्स, क्लास रूम के बाहर लिखा वो 'जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है' वाला कोट, वो दीवारों पर लिखे क, ख, ग, ब्लैक बोर्ड पर लिखी 1 से 10 तक की गिनतियाँ, ये जली हुई डेस्क, राख से काले हुए ये सफेद आधे फटे जूते...गवाही दे रहे हैं उस मंजर की जो 24 फरवरी को यहां घटित हुआ था।
डीआरपी स्कूल की क्लास।
स्कूल की जली हुई बेंच।
मोहल्ले के आखिरी छोर पर राजधानी स्कूल का पीछे का पोर्शन पड़ता है। जी! राजधानी वही स्कूल है जिसकी छत पर से न जाने कितने पेट्रोल बम, आग लगाने की चीज़ें, तमाम कांच की बोतलें और न जाने हिंसा करने के प्रयोग में आने वाले तमाम औजार मिले हैं। राजधानी स्कूल डीपीआर स्कूल की दीवार से लगता हुआ स्कूल है। स्थानीय निवासी बताते हैं कि 'इसकी प्लानिंग 23 की रात को ही कर ली गयी थी। मैनेजर की मिली भगत है'। एक औरत तकरीबन 42 साल की आंखों में आंसू लिए अपने घर की ओर इशारा किये कहती है कि 'मेरा पति 3 महीने पहले ही खतम हो गया है। बताओ मेरे घर का इतना नुकसान हुआ है। सब चीज़े जला दी गयी हैं। मैं कहाँ से भरपाई करूंगी?' इनका घर ठीक स्कूल के पीछे है। स्कूल की छत से ही पेट्रोल बम इनके घरों में और सामने वाले गैराज में फेंके गए थे।
राजधानी पब्लिक स्कूल।

बच्चों की ड्रॉइंग्स।
मैं खड़ी हुई सोच रही हूँ कि इन ढह गयी इमारतों के मूक पत्थर, घर जो खाली हैं और घर जिनकी खिड़कियों से अपरिचित आंखें झांक रही हैं। यह सब छोटे छोटे पुल हैं, हमे इस मंजर और हिंसा के असली ज़िम्मेदार तक पहुंचाने का। इनकी ईट चूना, पत्थरों से, आवाज़ों, प्रेम, रिश्ते, रंगों और संकेतों से बनी है कि हम तो एक हैं ना? मैं यहां की निवासी नहीं हुं इसलिए केवल इन्हें छूकर ही महसूस कर सकती हूँ।

राहुल सोलंकी का प्रोफाइल फोटो
घटना 24 फरवरी की ही है। राहुल सोलंकी गली के छोर पर खड़ा इस पूरे उपद्रव को देख रहा था अचानक से एक उपद्रवी ने उसपर गोली चला दी। वह वहीं मर गया। घर पास ही में है। पड़ोस के ही कुछ लोगों ने फोटो दिखाई है। गोली लगी हुई है गर्दन के नीचे । मेरी हिम्मत नहीं हुई उनके घर जाने की। वापिस वही घाव मैं नहीं कुरेदना चाहती। हम घर के दरवाजे से ही वापिस हो चले। वैसे कहने को बहुत कुछ था। जिस गली, मोहल्ले, इलाके को दोपहर की चंद घड़ियों में ही राख और ईंटों के ढेर में बदल डाला था, जिसके विनाश की खबर बिजली सी देश-दुनियां के हर कोने में फैल गयी थी लेकिन प्रशासन के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी थी उसके संबंध में कुछ भी कहने के लिए शब्दों की कमी नहीं है। लेकिन नहीं। आज नहीं। बस। आज नही....कभी और....
जला हुआ गोदाम।
मुझे एक बहुत पहले की शाम याद हो आती है। आधी रात के वक्त एक दोस्त ने अजीब सा प्रश्न किया था- कभी तुमको किसी शहर को चुनने की स्वतंत्रता दी जाए तो कौन-सा शहर चुनोगी? मुझे याद है मैने बिना सोचे समझे 'दिल्ली' कहा था। दिल्ली अधिकतर को पसन्द नहीं आता। लेकिन मैं हमेशा कहती हूँ कि कुछ शहर होते हैं जिन्हें रफ्तः रफ्तः पहचानना होता है। उनके खुले हिस्सों और बन्द झरोखों के पीछे एक प्यारा सा सच छिपा होता है। उसे निरावृत करना पड़ता है, सम्भल-सम्भलकर सधे हाथों से। दिल्ली ऐसा ही शहर है।

अपने जले हुए गोदाम को देखते रिज़वान।
दंगे में क्षतिग्रस्त हुई दुकानें।
भजनपुरा मेट्रो स्टेशन के पास में ही एक पेट्रोल पंप आता है। पूरी तरह से जल चुका है...नहीं...'जला दिया गया' है। उसी पंप पर काम करने वाले सुमित से हमने बात की। सुमित के हाथ, पैर और आंख पर चोट लगी है। उस दिन का मंजर बताते हुए कहते हैं 'सामने से कम से कम हज़ारों की भीड़ में लोग आये। रोड पर पत्थर फेंकने शुरू हुए। पेट्रोल बम, पत्थर और उनके हाथ में जो भी था वो सब फेंकने लगे। हमने पेट्रोल पंप बन्द किया लेकिन वो अंदर चले आये।' पुलिस के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि पुलिस के लगभग 3 4 लोग वहां मौजूद थे लेकिन वो भीड़ उनपर भी पत्थर बरसाने लगी। फायर ब्रिगेड का ज़िक्र करने पर वहीं पर काम करने वाले कहते हैं कि सीएए के विरोध में रोड जाम थी। इसकी वजह से फायर ब्रिगेड नहीं आ पाई।
चांद बाग के सामने वाला पेट्रोल पंप।
इसी पेट्रोल पंप के सामने चांद बाग़ इलाका है। अपोजिट रोड पर ज़ोहान ऑटोमोबाइल्स नाम की एक दुकान है। पूरी तरह से जली हुई है। उसके बराबर में या उससे लगती कोई भी दुकान को चिंगारी तक नहीं लगी है। कहते हैं हिंसा का पैटर्न नहीं होता। हिंसा तो हिंसा होती है ना? लेकिन, यहां पैटर्न है। 
खजूरी खास का पुलिस सहायता केंद्र।
थोडा और आगे चलेंगे तो थाना खजूरी खास है उसी से सटी हुई एक मज़ार भी 24 फरवरी को हुए दंगो की गवाह बनी है। जली हुई है पूरी। पुलिस सहायता केन्द्र थाना भी जलाया गया है। उसी के लगती रोड पर नज़र घुमाएंगे तो नरेश अग्रवाल की बालाजी स्वीट्स, करीम चिकिन कार्नर और पूरी फल मंडी में आग लगाई गई है। नरेश अग्रवाल कहते हैं कि 'मेरी दुकान में कल यानी 28 मार्च की रात को फिरसे लूटपाट हुई है। मेरी दुकान में एक ड्रम पड़ा है। मैं नहीं जानता ये क्या है? किसने रखा? पुलिस की तैनाती यहां पिछले 3 दिन से है फिर कैसे कोई दुबारा मेरी दुकान में आ रहा है?' लगभग 15-20 लाख का नुकसान हुआ है।
रिज़वान की दुकान जिसमें मंगलवार को आग लगाई गई।
मुस्तफाबाद मेट्रो स्टेशन और जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के बीच में ही अंदर जाकर एक गली दिखेगी। बाहर से शायद दिखेगी भी नहीं। फल की रेड़ी पर बैठे एक अंकल कहते हैं कि 'यहां भी सब जलाया गया है, जाओ अंदर देख आओ'। ये एक गोदाम है। फल, बेग, कपड़े स्टॉक किये जाते हैं यहां। अब जल चुके हैं। पूरी तरह से। दुकान के मालिक मुमताज़ 8 साल से दुकान कर रहे हैं। कहते हैं कि '24 की रात भी सौ-डेढ़ सौ लोग यहां आए थे। लेकिन मंगलवार को दिन में 12-1 बजे आग लगाई गई।  5-6 लाख तक का नुकसान हुआ है हमे। फल वालों की रेडिया जला दी हैं, और कुछ फल लूटकर बाहर ले गए बांट दिए थे'। क्षणभर के लिए विश्वास नहीं होता कि किसी ऐसे ही दिन, ऐसी ही शांत घड़ी में, यह खामोश गलियां(जो बाहर मेन रोड से दिखती तक नहीं हैं), गलियों के ऊपर सिमटा इस इलाके का नीला आकाश, आतंकियों की गोलियों, विस्फोटकों के बीच घिर गया होगा।
पार्किंग क्षेत्र में खड़ी अधजली गाड़ियां।
ऐसी ही ना जाने कितनी हिंसाओं की कहानियां हैं। हर किसी ने कुछ न कुछ खोया है। किसी ने परिवार, किसी ने पैसा, किसी ने सामान, किसी इस भरोसा और हम सभी ने इंसानियत।
खजूरी खास में मज़ार को भी जलाया गया था।
मैं अभी लौटी हूँ। उस शाम से-जो कुछ बीत गयी है, कुछ बीतने को है- एक झीना सा नाता जुड़ गया है। ये कहानियां यही रह जाएं तो बेहतर है। मैं चाहती हूँ टूट जाए, लम्हों के अंधेरे में बिखर जाएं। मैं जानती हूँ मेरा मौन इसे बखूबी समेट लेगा। हर बार यही तो होता है, मेरा मौन सबकुछ अपने अंदर समेट लेता है। '1984', '2002' और अब ये '2020'.... इसे भी समेट लेगा।


Tuesday, February 25, 2020

शाहीन बाग: सहमति और असहमति से इतर

तमाम सहमतियों और असहमतियों से इतर....

शाहीन बाग से हटकर भी दिल्ली में कई ऐसी जगह हैं जहां महिलाएं और पुरुष साथ में CAA के विरोध प्रदर्शन में बैठे हैं और तकरीबन उतने ही दिनों से जितने दिनों से शाहीन बाग में विरोध प्रदर्शन चल रहा है (मेनस्ट्रीम मीडिया के कैमरे में कैद नहीं हुआ है वो अलग विषय है)।
तो सवाल ये है कि ये छिन्न-भिन्न वाला प्रदर्शन आखिर कबतक? कबतक आप ऐसे तितर-बितर होकर बैठे रहेंगे? क्यों न एक जगह चुन ली जाए और उसी जगह सभी मिलकर प्रदर्शन करें? किसी भी आंदोलन का एक लक्ष्य तो ये भी होता है ना कि जितना जनसमर्थन हम जुटा पाए उतना बेहतर? सबका अंतिम लक्ष्य तो एक ही है... जब मुद्दा एक ही है तो फिर जगह अलग अलग क्यों?
इससे अन्य नागरिकों को भी दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ेगा और इससे आपका विरोध प्रदर्शन भी ज्यादा मजबूती के साथ दिखेगा। कम से कम किसी को हिंसा जस्टिफाई करने का मौका नहीं मिलेगा। मैं फिर कहती हूँ कि हिंसा का जस्टिफिकेशन नहीं होता। हिंसा मुसलमान करे या हिन्दू करे, हिंसा हिंसा होती है।  'हिन्दू' और 'मुसलमान' ही रहिये। क्या है ना कि खुद को ज्यादा 'बड़ा मुसलमान' और ज्यादा 'बड़ा हिन्दू' कहलवाने के चक्कर में सब गुड़गोबर कर रहें हैं आपलोग। नहीं तो भाई 2-4 लोगों के मरने से रुकेगा तो कुछ नहीं ये दुनियां है जैसे चल रही है चलती रहेगी आपलोग खेलते रहिये 'उसने पहले मारा- उसने पहले मारा' वाला खेल।

Saturday, February 22, 2020

यहां एक नदी हुआ करती थी.....


दिल्ली, यमुना और मेट्रो
हिमालय को अपना पालना बना बलखाती लहराती नहरें अपने नन्हे कदम सम्भाल पहाड़ो की तलहटी से उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में उतरती हैं। आगे चलकर ये एक ऐसे नदी का रूप ले लेती हैं जिसने अपनी बहाव की डोर से  उत्तर भारत की हज़ारों साल पुरानी सांस्कृतिक विरासत को बांधकर रखा है। 'यमुना'- ये सिर्फ एक नदी नहीं बल्कि गंगा जमुनी द्वाब में रहने वाले करोड़ो लोगो के लिए एक जीवनदायिनी शक्ति है, जननी है।
इसके बहाव में बहती है कहानियां बृज में कृष्ण लीला की, इसकी लहरों की ध्वनि में मिठास है कान्हा की बासुंरी की और इसके घाटों की खूबसूरती में अदा है राधा की। ये वो नदी है जो ताज का आईना है। ये नदी ग़ालिब की नज्मों की तरह दिल्ली के इतिहास को अपने अंदर समेटे हुए है।
दिल्ली का यमुना घाट
दिल्ली के लाल किला मेट्रो स्टेशन से लगभग ड़ेढ किलोमीटर की दूरी पर यमुना घाट है। यमुना किनारे कई जगह लोगों को पूजा सामग्री, पॉलिथीन और अन्य बेकार चीज़े फेंकते देखना अब आम बात हो चली है।
घाट की सीढ़ियां और कचरा
यमुना घाट पर रहने वाले सुरेंद्र के अनुसार यहां सफाई के लिए कोई नहीं आता है। उनके घर के बाहर यमुना की सीढ़ियों पर कुछ हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियां, शराब की बोतलें, पॉलीथीन, दवाई की बोतलें और कुछ साबुन के पैकेट पड़े हैं। सीढियों के बराबर में ही एक नाली जा रही है जिसमें वहां रहने वाले लोगों के घरों का कूड़ा-कचरा निकलकर नदी में मिल रहा है। पॉलीथीन का ढ़ेर और फूलों की सड़न साफ दिखाई दे रही है। उसी गली में रहने वाली एक आंगनबाड़ी महिला बताती हैं कि 'वह कुछ दिन पहले ही यहाँ आयी हैं, यमुना में पानी का स्तर बढ़ने के कारण उन्हें 15 दिन के लिए मकान खाली करने पड़े थे। अब स्तर कम हुआ है तो वह वापिस अपने घर में आ गये हैं। मानसून के समय यमुना का जलस्तर हर साल बढ़ जाता है जिसके कारण पूरी कॉलोनी को टेंट में कहीं और जाकर रहना पड़ता है।
 गलियों के घरों पर लगे पेम्पलेट
यहां 32 घाट हैं जहां पहलवानी के लिए अखाड़े भी हैं। अखाड़े नम्बर 2 पर रामनाथ पहलवान का अखाड़ा है और उसी के आगे धर्मपाल यादव का अखाड़ा है। धर्मपाल के नाम दंडबैठक मारने का विश्व रिकॉर्ड भी है। कुछ साल पहले तक चांदनी चौक के बड़े बड़े व्यापारी यहां पहलवानी और तैराकी के लिए आते थे। वे वज़ीराबाद से कूदकर 7 मील तैरते हुए वे यहां तक आते थे। लेकिन तकरीबन 20 साल पहले एक कश्मीरी लड़के की डूबकर मौत हो जाने के बाद सरकार ने तैराकी बन्द करवा दी है। छुआरों के कारोबारी मुकेश गुप्ता जो सीताराम बाजार में रहते हैं बताते हैं, 'इन घाटों पर एक समय में दौड़ भी हुआ करती थी लेकिन वो भी कुछ 4 या 5 सालों से बन्द है'।
घाट नम्बर 25 के लाल बलुआ पत्थरों पर बैठे दो अघोड़ी बीड़ी के कश लगाते हुए बातें कर रहे हैं। बीच बीच में वो अपनी टकटकी हमपर भी लगाते हैं। हम जैसे ही घाट नम्बर 27 की ओर बढ़ते हैं वो हमे रोक देते हैं। घाट नम्बर 27- निगमबोध घाट पर एक बच्ची का अन्तिमसँस्कार किया जा रहा है। निगमबोध घाट पर दूर दूर से लोग आकर अपने सगे सम्बन्धियों का अन्तिमसँस्कार करते हैं। उसके बाद अस्थियां, फूल, हड्डियां जो भी कुछ बचता है उसे यहीं यमुना में ही फेंक दिया जाता है।

यमुना और कुछ पक्षी
सर्दियों का मौसम साइबेरियन पक्षियों का आने का समय होता है। हर साल सर्दियों की शुरुआत के साथ साइबेरियन पक्षी यहां आते हैं। इनका ज़िक्र करते हुए रविन्द्र शर्मा बड़े उदास होकर कहते हैं, कि अब लोग श्राद्ध करवाने नहीं आते। लोगों की सोच अब बदल चुकी है। महंगाई ज्यादा और कमाई कम होने के कारण अब लोग 500-700 रूपए श्राद्ध में नही देते। लोगों में आस्था खत्म हो रही है। पहले जहां 4 से 5 हज़ार लोग श्राद्ध करवाने आते थे इसबार केवल 40-50 लोग ही आएं हैं। इसके कारण व्यापार को काफी नुकसान हुआ है।

आस्था एक बहुत बड़ा एंगल

यमुना के किनारे रहने वाले लोगों का मानना है कि पिछले कुछ सालों से जलीय जीवन को भी प्रदूषण से काफी नुकसान हुआ है। आसपास के कुछ लोगों को छोड़ दिया जाए तो अब लोग डुबकी लगाने भी नहीं आते।
घाट पर नहाते कुछ क्षेत्रीय निवासी 
इंटरनेशनल जर्नल ऑफ इंजीनियरिंग साइंसेज एंड रिसर्च टेक्नोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है: “दिल्ली में यमुना नदी लगभग 'मर चुकी है ’ और इसके उपचार के कोई संकेत नहीं हैं यहां तक ​​कि महंगी जल उपचार तकनीकें प्रदूषित नदी के पानी के उपचार में असमर्थ हैं"।जल प्रदूषण का स्तर सिंचाई के लिए प्रदूषण नियंत्रण अधिकारियों द्वारा निर्धारित सीमा से कई गुना अधिक हो चुका है। यमुना का जल इस कदर प्रदूषित हो चुका है कि किसी अन्य उद्देश्य के लिए अब यह उपयुक्त नहीं है। यहां तक कि यमुना का पानी फसल की सिंचाई के लिए भी बेकार है और इसका सेवन नहीं किया जाना चाहिए।
सरकारी तन्त्र की सुस्ती और लोगों की लापरवाही यमुना के प्रदूषण को और ज्यादा बढ़ावा दे रही है। ताज्जुब की बात है कि पूरी नदी की केवल 2 प्रतिशत लंबाई ही दिल्ली से होकर गुजरती है, फिर भी अकेली दिल्ली नदी को 76 फीसदी प्रदूषित करती है। 

घाट नम्बर 23 पर अपनी पांच पीढ़ियां बिता चुके पुजारी रामकिशन बताते हैं कि, '1984 से पहले नदी साफ हुआ करती थी उसके बाद से ही गन्दी होनी शुरू होगई हालांकि अभी नदी थोड़ी साफ हुई है। एनजीटी ने अब इनटेक (INTACH) नाम की कम्पनी को इसकी देखरेख का जिम्मा दिया है। और अगर सुधार नहीं होगा तो हर महीने 5 लाख का जुर्माना कम्पनी को देना होगा'। अधिकांश घाटों में मुख्य रूप से पुजारियों के परिवार द्वारा बसे एक मंजिला मकान ही हैं जो सदियों से यहां रह रहे हैं। जन्म मृत्यु से सम्बन्धित पारंपरिक हिन्दू रीति-रिवाज़ ही आज भी इनके परिवार के लिए आय का मुख्य स्रोत बना हुए हैं। पिछले 45 सालों से रामकिशन खुद यहां पूजा कर्म-कांड कर रहे हैं।
घाट पर पूजा करती महिला
वक़्त का तकाज़ा है कि एक समय में ये हस्ती खिलखिलाती नदी दिल्ली के न जाने कितने लोगों की ज़िन्दगी का हिस्सा थी। कुश्ती, तैराकी, पूजा, आरती, भजनों से चहकती ये जगह आज मर चुकी है। लोग यहां आज भी दिख जाते हैं लेकिन उनकी संख्या इक्का या दुक्का ही है। अब यहां कोई नहीं आता। ये जगह सुनसान है।



Sunday, February 2, 2020

हनूज दिल्ली दूरअस्त..

हनूज दिल्ली दूरअस्त- दिल्ली अभी दूर है मेरी जान.....


'नशा बन्द करवादो बस और कुछ नहीं चाहिए' लगभग 70 साल की वृद्ध महिला की पीछे खड़ी भीड़ में से आवाज़ आयी। आंखों में आंसू लिए अपने बेटे के बारे में कहती हैं 'पति नहीं है...दो लड़के हैं, नशा करते हैं। काम धाम करते नहीं हैं उसकी बहु और बच्चे भी मेरे ही सर है।' इस बैठकर आराम से खाने की उम्र में वो 70 साल की वृद्ध फलों का ठेला लगाती हैं। अपना घर चलाती हैं। जो पैसा मिलता है उसको बेटा नशे में उड़ा देता है।

बवाना स्थित जे जे कॉलोनी।
मेट्रोपोलिटन सिटी की चकाचौंध से दूर दिल्ली का ये इलाका है जे जे कॉलोनी। बवाना विधानसभा क्षेत्र में पड़ता है। बवाना जेजे कॉलोनी, एक रिसेटलमेंट कॉलोनी है, 2004-05 में अस्तित्व में आई थी। इस कॉलोनी में लगभग 65300 लोगों की आबादी रहती है। जे.जे. कॉलोनी, दिल्ली निगम द्वारा चिह्नित किया गया क्षेत्र है, जिसे शहर से हटाए गए झुग्गीवासियों के पुनर्वास के लिए रखा गया है। कॉलोनी से सटी हुई ही बवाना नहर है जिससे लगती हुई सारी झुग्गियां हैं, बस्तियां हैं।
लोग इन्ही झुग्गी बस्तियों में रहते हैं। ताज्जुब होगा जानकर कि गरीबी, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, स्वच्छता, चोरी और घरेलू हिंसा से इतर यहां की मुख्य समस्याएं शराब, नशाखोरी है।
बस स्टैंड, यहां मुश्किल ही बस आती हैं।
यहां मेट्रो नहीं पहुंची है। बस अड्डे और स्टेशन तक जाने में ही 500-600 रुपया ऑटो में लग जाता है। एक बस स्टैंड है जिसपर 5-6 लोग बैठे हैं .. सामने डीटीसी की ग्रीन वाली बस खड़ी है। लेकिन एकदम खाली.... बस खड़ी होने भर की ही लग रही है। बारिश होने पर पानी घुटनों तक भर जाता है। हालांकि सड़क बनी है लेकिन काम चलाऊ। चुनाव है इसलिए शायद सब चकमक कर दिया गया है। राजनीतिक प्रक्रिया का खैर निष्क्रिय है ही, लकवाग्रस्त है।
तमाम गन्दगी के बीच बसे घर।
ऐसे ही दूसरी महिला बताती है कि ,'मेरा भाई, बेटा, चाचा सब खराब हो गए नशे के चक्कर में। यहां बस नशा बन्द करवादो।' इसी 'नशे बन्द' करवाने वाली बात को बार बार कहना उनको जरूरी लग रहा था। क्योंकि यही उनका मुद्दा है, यही उनकी समस्या है। इस क्षेत्र में हर साल नशे के कारण कई मौतें होती हैं। जिसमें बच्चे, बूढ़े, युवा सब आते हैं। पुलिस भी आमजन की बात नहीं सुनती। केस को रफा-दफा करने की पुरानी आदत है। एक महिला कहती है कि 'ऊपर से आर्डर है इन्हें नशा करवाने के नहीं तो अभी तक सरकार ने बन्द क्यों नहीं करवाया'।
जे जे कॉलोनी स्थित स्कूल।
नशा एक बड़ी समस्या है। खुलेआम नशे के समान का इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट एक घर से दूसरे घर हो रहा है। अब ये बात प्रशासन को पता है या नहीं मैं नहीं जानती। लेकिन क्षेत्रिय निवासियों के अनुसार तो यहां कभी शांति नहीं रही। खुल्लेआम सब बिकता है।
मैं नहीं जानती कि रिठाला से बवाना तक बड़ी बड़ी गाड़ियों में बैठकर जाते हुए मंत्रियों, विधायकों, नेताओं के लिए वो इलाका कितनी दूर है लेकिन इतना दावे के साथ कह सकती हूँ कि यहां के लोगों के लिए तो हनूज दिल्ली दूरअस्त...


भारत के मेले: छत्तीसगढ़ का 'मड़ई मेला' जहां मिलता है औरतों को संतान प्राप्ति का आशीर्वाद

ये छत्तीसगढ़ में लगने वाला एक मेला है, गंगरेल मड़ई। दीवाली के बाद पहले शुक्रवार को यह मड़ई मेला आयोजित करवाया जाता है। इस साल भी लगा था। जो इन ...