Sunday, March 29, 2020

Lockdown Days: 1

पुरानी यादों में ठंडी आहे भरने से बेहतर यह होता है कि चुनौतियों और समस्याओं को नए परिपेक्ष्य में देखा जाए, उनसे निपटने के नए तरीके अपनाए जाए। 
देशभर में हो रहे पलायन के लिए सरकार ज़िम्मेदार है पूरी तरह से। अपने घरों की तरफ बढ़ते इन आम मजदूरों को चाहे जितना गरिया सकते हैं आप। लेकिन यकीन मानिये सब मजबूर हैं। हम, आप, ये पलायन करते लोग और सरकार भी। किसी भी आपदा से निपटने के लिए हम तीन स्टेप फॉलो करते हैं। आपदा से पहले लिए जाने वाले measures, आपदा के समय और आपदा के बाद। लेकिन खांका तो हम पहले ही बनाते हैं ना। हम चीन और अन्य देशों को देख चुके थे। वहां मचे हाहाकार से हम परिचित थे। हम समझ चुके थे की ये बीमारी तबाही लाएगी। जरूर लाएगी। पैनिक क्रिएट होगा। जहां आधे से ज्यादा आबादी अपने होम स्टेट को छोड़कर दूसरे स्टेट में काम करती है वहां लोकडाउन के बाद पैनिक क्रिएट होना था। इसके लिए हमें पहले से शायद तैयार रहना चाहिए था। हम नहीं थे। एक छोटा सा गलत स्टेप ना जाने कितनों की जान ले सकता है। सरकार अपना काम करे और जितनी तेज़ी से दूसरे स्टेप्स लिए गए हैं उतने ही तेज़ी से इनके लिए भी लिए जाने चाहिए। ये सही सलामत घर पहुँचे और इनके जाने के बाद सभी मेडिकल केयर और अन्य चीज़े ध्यान में रखी जाएं। आप भी समझिए...कोई बदलाव थोड़ी खुशी के साथ ढेर सारी समस्याएं लेकर आते हैं। लेकिन वो अपरिहार्य होते हैं। मैं फिर कहती हूँ ये राजनीति नहीं है। आरोप प्रत्यारोपों से बचिए। आप से जो मदद हो पाए कीजिये लेकिन अपना ध्यान रखिये। भावों में मत बहिये। सारे प्रीकॉशन्स लीजिये। सब खुद को भी बचा लेंगे ना तब भी आपका बहुत बड़ा योगदान होगा इस बीमारी से बचाने में।
देखिए ना, वक्त का तकाज़ा ही है कि आज हम हाथ धोना सीख रहे हैं, छोटे-छोटे बच्चे घर के बड़े-बूढ़ों को हाथ धोना सिखा रहे हैं। 
हम जल्द ही इस बीमारी से निकलेंगे। गली के बच्चें अपनी छतों पर खड़े होकर फिर से एयरोप्लेन के आने पर तालियां बजायेंगे। लेकिन आज उड़ना मना है। शो मस्ट गो ऑन के कांसेप्ट को थोड़ा सा आराम दीजिये। आराम करिए। घरों में रहिये। ख्याल रखिये। 

#Corona #Lockdown_day

Friday, March 27, 2020

उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान छोड़ देंगे खेती?

महंगाई डायन खाई जात है.....
बुआई करता गन्ना किसान।
मुज़फ्फरनगर जनपद के खेड़ा गांव में रहने वाले 46 वर्षीय राहुल कहते हैं कि 'इस बार नवंबर में मिल शुरू हुआ था और अभी तक चल रहा है। जिसमें अभी तक केवल 12 दिन का ही भुगतान किया गया है। मेरा 75 फीसदी गन्ना चला गया है जिसमें से केवल 15 प्रतिशत का ही भुगतान किया गया है। जो 15 प्रतिशत गन्ना अब बचा है न जाने कब जाएगा। गर्मी की वजह से जो गन्ना 80 निकलता है वो अब 50 निकलेगा। बुआई में भी देरी होगी। किसान की किस्मत में मरना ही लिखा है। कोई भी सरकार आये किसान हमेशा घाटे में ही रहा है।'
उत्तर प्रदेश की सबसे बड़े गन्ना उत्पादक क्षेत्रों में गिनती होती है लेकिन यहां स्थिति और खराब है। शुगर मिल्स एसोसिएशन के अनुसार 2 सितम्बर 2019 तक उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों का चीनी मिलों पर 6480 करोड़ रुपये बकाया था। जबकि योगी सरकार ने यह वादा भी किया था कि प्रदेश के गन्ना किसानों को भुगतान हर हाल में 14 दिनों के अंदर-अंदर कर दिया जायेगा और नहीं करने पर ब्याज के साथ मूल राशि दी जाएगी। 
अपने खेत मे बुआई करते सोमपाल।
भसाना मिल में अपना गन्ना देने वाले सोमपाल बताते हैं कि 'अभी तक केवल 12 दिन का ही पेमेंट आया है। नवम्बर 2019 में उन्होंने अपना गन्ना देना शुरू किया था। जिसके बाद फरवरी तक वो लगभग 300 क्विंटल गन्ना दे चुके हैं। जनवरी में भी गन्ने का भुगतान किया गया था लेकिन वो भुगतान पिछले साल का था। यानी लगभग 9 महीने बाद भुगतान किया गया था। हम रातभर मिल में खड़े रहते हैं। 11 बजे घर से निकलते हैं और सुबह 4 बजे घर आते हैं। खेती करना घाटे का सौदा है।'
साथ में खड़े भसाना मिल में ही अपना गन्ना देने वाले जयदेव भी कहते हैं कि 'किसानों को 10-10 घण्टे का भी इंतज़ार करने पड़ता है सहकारी मिलों को छोड़ दिया जाए तो लगभग सभी प्राइवेट मिलों का यही हाल है'। 
भसाना मिल की पर्ची।
भसाना मिल बजाज हिंदुस्तान का मिल है। 2018-2019 में 94 निजी, 24 सहकारी और उत्तर प्रदेश राज्य चीनी निगम की एक इकाई समेत 119 राज्य मिलों ने पेराई परिचालन में भाग लिया था। इन 94 निजी मिलों में से 31 मिल बजाज हिंदुस्तान शुगर लिमिटेड के अंतर्गत आते हैं। बिज़नेस स्टैण्डर्ड के अनुसार सितम्बर 2019 में बजाज हिंदुस्तान पर 5,580 करोड़ रुपये बकाया थे जिसके कारण उत्तर प्रदेश सरकार ने पुलिस केस दर्ज करवाया था। यूपी के टॉप प्रोड्यूसर मिलों में मवाना शुगर लिमिटेड, बजाज हिंदुस्तान शुगर लिमिटेड, मोदी शुगर मिल, वेव इंडस्ट्रीज और यादव शुगर लिमिटेड आते हैं। 

मिलों पर किसानों का बकाया पैसा:
25 जून 2019 की बात की जाए तो गन्ना किसानों के 18143 करोड़ रुपये बकाया थे वहीं पर केवल उत्तर प्रदेश किसानों की अगर बात की जाए तो यह राशि 10134 करोड़ थी, 2018-19 में 17,840 करोड़ रुपये और 2017-18 में यह बकाया मूल्य 303 करोड़ रुपये था। 
उत्तर प्रदेश शुगर मिल एसोसिएशन के अनुसार एक अक्टूबर से 20 फरवरी 2020 तक राज्य की चीनी मिलों पर किसानों का बकाया बढ़कर 7,392.47 करोड़ रुपए पहुंच गया है ।जबकि पेराई सीजन 2018-19 का 515.55 करोड़ रुपए बकाया है, 2017-18 का 40.45 करोड़ रुपए और 2016-17 का भी 22.29 करोड़ रुपए चीनी मिलों पर अभी तक बकाया है। 
यूपी केन की वेबसाइट (UPCANE) के अनुसार पेराई सत्र 2019-2020 में 19 मार्च 2020 तक 13,725 करोड़ रुपये का भुगतान हो चुका है। वहीं पर पेराई सत्र 2018-2019 में कुल देय गन्ना मूल्य 33,048 करोड़ रुपये के सापेक्ष 32,798 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया है।
यूपी केन कि वेबसाइट के ही अनुसार 2011 से लेकर 2019 तक हर साल मिल नवंबर में शुरू होकर मार्च तक चली है जिसमें हर बार किसानों का भुगतान 8-9 महीने के अंतराल पर ही किया गया।

इस साल के बजट में कहां है किसान? 
उत्तर प्रदेश के आज तक के सबसे बड़े बजट में इस साल कृषक कल्याण के तहत 36,000 करोड़ से 86 लाख लघु एवं सीमांत किसानों का फसल ऋण मोचन किया गया। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना में प्रदेश के सभी किसान आच्छादित, 2 करोड़ 4 लाख किसानों के खाते में 12 हज़ार करोड़ रुपये हस्तांतरित, 4 करोड़ मृदा स्वास्थ्य कार्ड एवं 1.11 करोड़ किसान क्रेडिट कार्ड वितरित की बात कही गयी है। सरकारी आंकड़ों की ही माने तो सूचना एवं जनसंचार विभाग, उत्तर प्रदेश के अनुसार पिछले 3 सालों में किसानों का 92,522 करोड़ रुपयों का गन्ना मूल्य भुगतान हो चुका है।
सरकार ने 2016 में किसानों की आय 2022 तक दोगुनी करने की बात भी कही थी। लेकिन मूल धन तो मिल नहीं पा रहा है फिर दोगुनी आय का सवाल ही कहाँ से आया? इसबार हालांकि कृषि क्षेत्र के लिए 283 लाख करोड़ रुपये आवंटित किये गए हैं।

मौसम की मार और किसान: 
इस साल बारिश की वजह से कोल्हू बन्द हुए हैं। जिससे गन्ना मंदा हो गया है और गुड़ महंगा। अभी गन्ने का रेट 325 रुपये प्रति क्विंटल चल रहा है। मायावती सरकार के दौरान ही 40 रुपये प्रति वर्ष यह बढ़ाया जाता था लेकिन उसके बाद आने वाली सभी सरकारों ने गन्ना किसानों के लिए कोई खास सुविधा नहीं की।
कोल्हू।
वरिष्ठ पत्रकार अखिलेश आर्येन्दू लिखते हैं कि 'सरकारी नौकरी पेशा वाले लोगों के वेतन में 120-150 गुने की वृद्धि हुई है जबकि किसानों की मुश्किल से 19 प्रतिशत। सरकारी कर्मचारियों को स्वास्थ्य भत्ता चार लाख अस्सी हज़ार मिलता है, सर्वोच्च न्यायालय के अधिकारियों, जजों, कर्मचारियों को इक्कीस हज़ार अतिरिक्त भत्ता मिलता है। लेकिन किसानों के लिए न कोई भत्ता है न कोई योजना।'
किसान नेताओं के बारे में बताते हुए रामभूल कहते हैं कि 'हम 40 साल से खेती कर रहे हैं हमे कभी कोई फायदा नहीं मिला। लोग किसान नेता बने बैठे हैं, 4 दिन धरने पर बैठते हैं फिर सुलह हो जाने पर उठ जाते हैं। सब अपनी जेब भरना चाहते हैं। गरीब किसान का तो नुकसान होना ही है चाहे कुछ भी करें'।
62 वर्षीय बीरसिंह नहीं चाहते उनके बच्चें या पोते खेती करें। वो कहते हैं कि 'मेरी पूरी ज़िंदगी खेती करने में बीत गई। किसान को मरना ही है, इससे अच्छा है कि 10-12 हज़ार की नौकरी कर लें कम से कम पैसे तो समय से मिलते हैं। 1 बीघा खेत में 5000-6000 तक का खर्च आता है। मिल पेमेंट नहीं करता तो हमे लोन लेना पड़ता है और फिर न चुकाने पर बैंक वाले भी हमे डंडा करते हैं। महंगाई इतनी है। अब अगर लोन नहीं लेंगे और अगले सत्र की बुआई कैसे करेंगे? हम खाएंगे क्या?'
62 वर्षीय बीरसिंह।
किस सरकार ने कितना फायदा दिया?
राजनीतिक महत्व की अगर बात की जाए तो लोकसभा की 545 सीटों में से लगभग 164 सीटों पर गन्ना किसानों का सीधा असर पड़ता है। प्रदेश के 44 जिलों में गन्ना उत्पादन होता है और 28 जिलों की तो पहचान ही गन्ना किसानों के तौर पर होती है। वित्त मंत्री के द्वारा पेश किये गए बजट के अनुसार यह बजट इन करोड़ों भारतीय किसानों की आकांक्षा पूरी करने का लक्ष्य निर्धारित करता है, जो भारतीय अर्थव्यवस्था की धुरी है। 
2000 से 2002 के बीच में भाजपा ने दो बार गन्ने का समर्थन मूल्य 5 रुपए बढ़ाया था। वहीं पर सपा सरकार ने 2004 से 2007 के बीच 13 से 10 रुपए तक का इजाफा किया था और बसपा ने 2008 से 2011 के बीच इसमें 10 से 35 रुपए तक की बढ़ोतरी की थी। सपा सरकार दोबारा जब 2012 में आई तो उसने गन्ना समर्थन मूल्य में 40 रुपए की बढ़ोतरी की। 2017 में चुनाव से ठीक पहले सपा सरकार ने 25 रुपए एकबार फिर बढ़ाए। फिर इसके बाद योगी सरकार ने 10 रुपए का इजाफा किया। हालांकि, हर साल बढ़ती महंगाई के चलते किसानों को बढ़ी हुई दर खाद, बीज, सिंचाई और लेबर चार्ज आदि के हिसाब से कम ही रहती है।
कांटे पर गन्ना तोलवाते किसान।
नेशनल स्कीम पालिसी कहती है कि कृषि से देश की अर्थव्यवस्था को कोई खास फायदा नहीं हो रहा है। इसलिए उन क्षेत्रों को बढ़ावा देने की जरूरत है, जिनसे अर्थव्यवस्था को मजबूत आधार मिले। लेकिन यहां सरकार को समझना होगा कि मुद्दा ये नहीं है कि फायदे का सौदा क्या है बल्कि परेशानी ये है कि किसानों पर कुदरत भी कहर ढाती रहती है। राहत देकर कबतक मरहम लगाया जाएगा? आज़ादी के बाद से कोई भी ऐसी सरकार नही आयी जिसने सरल और निश्चित आय बनाने के सन्दर्भ में काम किया हो। घाटे वाली कृषि का सबसे बड़ा कारण उनसे जुड़ी सरकारी योजनाएं ही होती हैं। जरूरी है आला अधिकारी अपने निजी हितों को छोड़कर इन छोटे-बड़े किसानों के बारे में सोचे। नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब ये सभी किसान खेती छोड़ अन्य नौकरियों की तरफ रुख करेंगें।

Saturday, March 14, 2020

गांधी जी की 'नेचुरोपैथी' से लोग आज भी ठीक होते हैं?

गांधी स्मारक निधि, पट्टीकल्याणा।
पानीपत जिले के समालखा तहसील से तकरीबन 2 किलोमीटर की दूरी पर पट्टीकल्याणा नाम की जगह है। सड़क से सटा एक बोर्ड है जिसपर 'गांधी स्मारक निधि' लिखा है। हालांकि यहां पहुंचने के लिए काफी मशक्कत का सामना करना पड़ा।
पट्टीकल्याणा, स्वाध्याय आश्रम।
यह है गांधी स्मारक निधि प्राकृतिक जीवन केंद्र स्वाध्याय आश्रम। हमने अंदर जाने की सोची तो बाहर बैठे एक 67 वर्षीय वृद्ध ने हमे टोका 'यहां हर किसी को जाने की आज्ञा नहीं है'। हमने बताया हम पत्रकार हैं, मिलना चाहते हैं। काफी देर बात करने के बाद अंदर जाने की परमिशन इस शर्त पर मिली कि हम उस आश्रम में इधर उधर नहीं घूमेंगे सीधा वहां के हेड डॉक्टर से मिलेंगे।
अंदर से आश्रम ऐसा दिखता है।
खैर, हमने ज्यादा बहस ना करते हुए सीधा डॉक्टर को फ़ोन घुमाया। एक लड़की मिली जो वहीं की स्टूडेंट थी। उसके जिद्द करने पर हमने थोड़ा ही आश्रम घुमा। तो पाया कि यहां 'नेचुरोपैथी' यानी प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से इलाज होता है।
हरा-भरा प्रांगण।
गांधी जी के 'नेचुरोपैथी' सिद्धांत से यहां मरीजों को ठीक किया जाता है। प्रकृति से किये जाने वाले इलाज को नेचुरोपैथी कहा जाता है। इंसान का शरीर 5 तत्वों से मिलकर बना है वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी और आकाश और इन्ही तत्वों से मरीज का इलाज नेचुरोपैथी में किया जाता है। नेचुरोपैथी में रोग को ठीक करने के साथ ही उसे शरीर से खत्म करने पर ध्यान दिया जाता है। इस चिकित्सा पद्धति में पूरी तरह से प्रकृति में मिलने वाली चीजों का इस्तेमाल कर अलग-अलग रोगों का उपचार किया जाता है।

67 वर्षीय हिरेन अंकल।
'आई एम 67 इयर्स ओल्ड एंड डॉक्टर बाई प्रॉफेशन' पीछे से एक आवाज़ आती है। हालांकि उम्र के हिसाब से दिखने में वो काफी जवान लग रहे थे। 2005 में गाड़ी से एक्सीडेंट के कारण उनकी बॉडी पैरालाइज्ड हो गयी थी, 27 दिन कोमा में रहने के बाद आज वह 80% तक ठीक हो गए हैं। अंकल बताते हैं कि वह इस आश्रम में 2015 में एडमिट हुए थे और आज यहां के स्टूडेंट बन गए हैं। एक 27 वर्षीय जवान की ऊर्जा से ओत-प्रोत हीरेन अंकल बताते हैं कि 'मैं पेशे से डॉक्टर हूं, लेकिन एलोपैथी से ज्यादा नेचुरोपैथी पर भरोसा करता हूं। अब मैं रोज़ सुबह-शाम 5 किलोमीटर पैदल चलता हूं।' प्राकृतिक इलाज का फायदा बताते हुए हीरेन अंकल हमे बताते हैं कि, 'मैं काफी ऑप्टिमिस्टिक हूं, 1978 में गाज़ियाबाद में मेरा नर्सिंग होम था। लोग अक्सर मेरी पीठ पीछे कहा करते थे कि ये डॉक्टर इंजेक्शन में पानी भरकर लगाता है, अब मैं उन्हें कहना चाहता हु कि हां पानी से भी इलाज होता है।'
चिकित्सक कक्ष, प्राकृतिक जीवन केंद्र।
प्राकृतिक चीज़ों से इलाज के बावजूद यह आश्रम किसी ऐम्स, अपोलो से कम फैसिलिटीज़ वाला नहीं है। आश्रम की देखरेख करने वाले एक सीनियर डॉक्टर बताते हैं कि 'इस आश्रम में दो प्रकार की व्यवस्था हैं- जनरल वार्ड और स्पेशल वार्ड जहां 100 बेड्स की व्यवस्था है। खाने का यहां एक प्रॉपर टाइम टेबल है। सुबह 5 बजे से मरीजों की दिनचर्या शुरू हो जाती है। बाहर की खाने की वस्तुएं यहां वर्जित हैं। मरीजों को केवल जैविक खाना ही दिया जाता है।' हालांकि आश्रम के कुछ कमरों में लगे ऐ.सी हमारी नजरों में खटक रहे थे। लेकिन लोगों की जेबों को नाक चिढ़ाते तीन-तीन, चार-चार लाख तक आने वाले बड़े बड़े हॉस्पिटल बिल की बजाय यहां 1 महीने का बेड का खर्चा मुश्किल से 10-20 हज़ार तक ही आता है।
आश्रम के अंदर ही एक खादी भारत स्टोर भी है।
25 एकड़ की ज़मीन पर बने इस प्रांगण में चारों ओर हरियाली फैली है। खिली धूप, साफ हवा, फूलों की खुशबू, साफ पानी और लहराते खेत हम दिल्ली में रहने वाले लोगों को अक्सर खुश कर देते हैं।


Monday, March 9, 2020

पाकिस्तान यात्रा: गुरुद्वारा करतारपुर साहिब

पाकिस्तान का एंट्री पॉइंट।
"देश से प्यार नहीं है तो पाकिस्तान चले जाओ" हिंदुस्तानियों के लिए पाकिस्तान हमेशा से ही देशप्रेम नापने की एसआई यूनिट रहा है। जितनी पाकिस्तान से नफरत उतना देश से प्यार और जितना पाकिस्तान से प्यार उतनी देश से नफरत। तो हमने भी अपना देशप्रेम कैलकुलेट करने के लिए पाकिस्तान ही चुना। 13 फरवरी को हम कॉलेज कैंपस में बात कर ही रहे थे कि अचानक हम तीनों के फ़ोन पर मैसेज आया 'Your registration no. For Shri kartarpur sahib Pilgrimage is confirmed'। हमारा ईटीए 16 फरवरी का था तो ज़ाहिर सी बात है हमे 14 को ही निकलना पड़ा। प्लानिंग के हिसाब से हमे दिल्ली से अमृतसर जाना था। हम लगभग 3 बजे अमृतसर पहुंचे। अमृतसर दिल्ली से लगभग 450 किलोमीटर की दूरी पर है।
गुरुद्वारा करतारपुर साहिब।
गुरुद्वारा करतारपुर साहिब का इतिहास क्या है?
पाकिस्तान स्थित गुरुद्वारा श्री करतापुर साहिब भारतीय सीमा से महज 4 किलोमीटर की दूरी पर है। सिखों के गुरु नानक जी ने करतारपुर को बसाया था और यहीं इनका परलोकवास भी हुआ। करतारपुर गुरुद्वारा साहिब पाकिस्तान के नारोवाल जिले में स्थित है। यह गुरुद्वारा नानक जी की समाधि पर बना है। रावी नदी के किनारे पर बसा यह स्थल भारतीय सीमा के डेरा साहिब रेलवे स्टेशन से महज चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। बताया जाता है कि यहां के तत्कालीन गवर्नर दुनी चंद की मुलाकात नानक जी से होने पर उन्होंने 100 एकड़ जमीन गुरु साहिब के लिए दी थी। सबसे पहले 1522 में यहां एक छोटा सा झोपड़ीनुमा स्थल का निर्माण करवाया गया था। करतारपुर को सिखों को पहला केंद्र भी कहा जाता है।
वेरका जंक्शन।
अमृतसर से करतारपुर गुरुद्वारा कैसे जाएं?
अमृतसर से वेरका जंक्शन का रास्ता मुश्किल से 20 मिनट का है। वेरका जंक्शन से हर 1 घण्टे पर लोकल ट्रैन चलती है जो महज डेढ़ घण्टे में डेरा बाबा नानक स्टेशन पहुँचा देती है। डेरा बाबा नानक स्टेशन पाकिस्तान से लगता हुआ स्टेशन है। एक तरफ बॉर्डर के उस पार गुरुद्वारा करतारपुर साहिब है तो वहीं बॉर्डर के इस पार गुरुद्वारा डेरा बाबा नानक है। सिखों के पहले गुरु, गुरु नानक देव जी ने काफी यात्राएं की। आज लगभग उन सभी जगहों पर गुरुद्वारे मौजूद हैं। उन्ही गुरुद्वारों में से एक गुरुद्वारा डेरा बाबा नानक भी है। यह गुरुद्वारा गुरदासपुर में है और भारत-पाकिस्तान के बॉर्डर से सिर्फ 1 किलोमीटर की दूरी पर है।
डेरा बाबा नानक रेलवे स्टेशन।
डेरा बाबा नानक गुरुद्वारे में मुफ्त बस सेवा के साथ रहने और खाने का भी पूरा प्रबन्ध होता है। यात्री चाहें तो यहां रुक सकते हैं। सुबह लगभग 8 बजे यहां से पहली बस करतारपुर कॉरिडोर के लिए रवाना होती है और 5 बजे वापिस लेकर भी आती है। इन दोनों गुरुद्वारों की बीच की दूरी लगभग 8-9 किलोमीटर है। रेलवे स्टेशन से गुरुद्वारे तक लगभग 20 से 25 मिनट के इस रास्ते को पूरा करने के लिए फ्री बस सेवा भी उपलब्ध है।


इमीग्रेशन पॉइंट से गुरुद्वारा करतारपुर साहिब तक का सफर कैसे होता है पूरा?
गुरुद्वारे तक पहुँचने के लिए इमीग्रेशन प्रोसेस से होकर गुज़रना पड़ता है। इमीग्रेशन में ईटीए और डाक्यूमेंट्स वेरिफिकेशन जैसी तमाम फॉरमैलिटी करनी होती है। पाकिस्तान जाने से पहले भारतीय इमीग्रेशन पॉइंट पर पोलियो ड्राप भी पिलाई जाती है। इसका कारण है कि पाकिस्तान अभी भी पोलियो फ्री देश नहीं हुआ है। भारतीय इमीग्रेशन पॉइंट के बाद पाकिस्तान में स्वागत होता है। गुरुद्वारे तक सभी को बसों में ले जाया जाता है। जिसके बाद गुरुद्वारे की एंट्री पर ही ब्रीफिंग दी जाती है।

क्या है गुरुद्वारे के अंदर?
शुरुआत में ही गुरुद्वारे में 'मज़ार शरीफ़' है। कहा जाता है कि जब गुरु नानक देव जी अपने स्वर्गीय निवास के लिए रवाना हुए, तो हिंदू और मुस्लिम अंतिम संस्कार करने के तरीके पर सहमति नहीं बना पाए। हिंदू अपनी परंपरा के अनुसार दाह संस्कार करना चाहते थे जबकि मुसलमान अपने अनुसार दफन करना चाहते थे। इसीलिए गुरु नानक देव जी का जब परलोकवास हुआ तब उस जगह लोगों को कुछ फूल और एक कपड़ा मिला जिसको दो हिस्सों में बांट दिया गया। एक हिस्सा हिंदुओं को मिला और एक मुसलमानों को। आज भी एक समाधि हिंदू परंपरा के अनुसार गुरुद्वारे में स्थित है और एक कब्र (मुस्लिम परंपराओं के अनुसार) नानक देव जी की याद के रूप में परिसर में स्थित है।
गुरुद्वारे में एक कुआँ भी है। जिसके बारे में कहा जाता है कि इसी कुएं से पानी ले जाकर गुरु नानक देव जी खेती करते थे। जिन खेतों में वह खेती करते थे अब उस जगह को 'खेती साहब' कहा जाता है। 

गुरुद्वारे से लगता हुआ एक छोटा सा बाज़ार भी है जहां खाने पीने और पहनने की छोटी छोटी चीज़े मिलती है। स्ट्रीट फूड के अलावा यहां लाहौर, करांची, मुल्तान आदि की फेमस मिठाई मौजूद हैं।
बेसन का नान।
करतारपुर कॉरिडोर बनने से पहले कैसे होते थे दर्शन?
कॉरिडोर बनने से पहले लोग डेरा बाबा नानक गुरुद्वारे से ही दूरबीन से दर्शन किया करते थे। पाकिस्तान सरकार द्वारा बीच में आने वाली घास को भी काट दिया जाता था ताकि भारत के लोग आसानी से गुरुद्वारा करतारपुर साहिब के दर्शन कर सकें। बंटवारे के दौरान दरबार साहिब और डेरा बाबा नानक भी अलग हो गए थे। एक पाकिस्तान के हिस्से आ गया था तो दूसरा हिंदुस्तान। इन दोनों गुरुद्वारों के बीच में बहती नदी है रावी। जो बरसों से ऐसी ही बहती रही। करतारपुर साहिब के बारे में भारत ने पाकिस्तान से पहली बार बातचीत 1998 में की थी। जिसके बाद से ही भारत के सिख करतारपुर कॉरिडोर बनवाने की बात कर रहे थे। जिसके 20 साल बाद इस मामले में अहम क़दम उठाया गया। भारत के सिख शुरू से ही चाहते रहे कि उनको करतारपुर गुरुद्वारे तक जाने तक का कोई वीज़ा-फ्री कॉरिडोर या कोई ऐसा सिस्टम दिया जाए जिससे वहां पहुँचने में आसानी हो। क्योंकि इससे पहले हिंदुस्तानियों को लाहौर जाना पड़ता था और फिर लाहौर से करतारपुर साहिब। लाहौर से गुरुद्वारे लगभग 150 किलोमीटर की दूरी पर है। लेकिन गुरु नानक देव जी की 550 वीं जयंती पर इसे खोल दिया गया था।
सफर के साथी।
दोनों देशों के बीच हुए समझौते में क्या है?
1. कोई भी भारतीय किसी भी धर्म को मानने वाला हो उसे वीज़ा की जरूरत नहीं होगी।
2. ट्रेवल के लिए केवल इलेक्ट्रॉनिक ट्रेवल ऑथोराईज़ेशन (ईटीए) की जरूरत होगी।
3. दर्शन के लिए कम से कम 10 दिन पहले रेजिस्ट्रेशन करवाना होगा। 
4. यह कॉरिडोर पूरे साल खुला रहेगा।
5. भारतीय विदेश मंत्रालय यात्रा करने वालों की इस लिस्ट को 10 दिन पहले पाकिस्तान को देगा जिसके बाद वह वेरिफिकेशन करेंगे और उसी के बाद ईटीए जारी किया जाएगा।
6. इस रेजिस्ट्रेशन की फीस 20 डॉलर होगी। यानी 1400 भारतीय रुपये।
7. एक दिन में अधिक से अधिक 5000 लोग/श्रद्धालुओं को ही दर्शन की परमिशन दी जाएगी।
8. आवेदकों को मेल और मैसेज के ज़रिए तीन-चार दिन पहले कन्फ़र्मेशन की जानकारी दी जाएगी।
किसे बुलाया गया था भारत-पाकिस्तान के बीच लकीर खींचने के लिए?
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर उन चंद लोगों में से एक थे जो भारत-पकिस्तान बंटवारे के बाद रेडक्लिफ़ से मिले थे। सिरील रेडक्लिफ वही शख्स हैं जिन्हें 1947 में ब्रिटेन से भारत-पाक के दो टुकड़े करने के लिए बुलवाया गया था।
रेडक्लिफ़ के इंटरव्यू के दौरान हुई सभी बातों का ज़िक्र करते हुए कुलदीप नैय्यर कहते हैं कि “मैं जानना चाहता था कि उन्होंने विभाजन की लाइन आखिर कैसे खींची? उन्होंने कोई बात मुझसे छिपाई नहीं"।
फ़ोटो साभार: गूगल।
कुलदीव नैय्यर को रेडक्लिफ़ ने आपबीती सुनाते हुए कहा कि “मुझे इस रेखा को खींचने के लिए 10-11 दिन का समय दिया गया था। उस वक़्त न ही हमारे पास कोई डाटा था और ना ज़िलों के नक्शे। मैंने रावी नदी को बंटवारे का आधार बनाया था। हालांकि मैं पहले लाहौर को भारत को देना चाहता था क्योंकि लाहौर में हिंदुओं की संपत्ति ज़्यादा थी। लेकिन अगर लाहौर हिंदुस्तान में चला जाता तो पाकिस्तान के हिस्से में कोई भी बड़ा शहर नहीं आता इसलिए लाहौर को भारत से निकालकर पाकिस्तान को दे दिया। लाहौर को पाकिस्तान को देना मेरा मजबूरी थी।"
बंटवारे का दर्द बयां करते हुए रेडक्लिफ़ कहते हैं कि, 'यह रेखा खींचते हुए मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी दिल के दो हिस्से कर रहा हूँ।' कुलदीप नैय्यर अपने एक इंटरव्यू में बताते हैं कि जिस वक़्त वह रेडक्लिफ़ से बात कर रहे थे और वह इस रेखा खींचने की घटना का वर्णन कर रहे थे तब उनके चेहरे पर एक उदासी थी। वह बार बार कह रहे थे कि 'मुझे इस बात का दुख हमेशा रहेगा'।
क्या सोचते हैं पाकिस्तान के लोग भारत के बारे में?


Monday, March 2, 2020

हरियाणा के मेवात की एक प्रथा: पारो प्रथा

मेवात का एक गांव
एक उजड़ा-सा गांव है, घरों की छतों और गली की मुंडेरों से झांकती कुछ घूँघट ओढ़े महिलाएं हैं, हमे देखते कुछ मर्द हैं,  घरों में इंडक्शन या गैस नहीं है पुरानी धरोहरों को समेटे चूल्हे हैं। दुनियां की उलझनों से दूर बेफिक्र टायर से खेलते बच्चे हैं, अपनी पुश्तैनी विरासत को समेटे पुराने ज़माने वाली इमारतें हैं शायद पीढ़ियों से इनमें कोई बदलाव नहीं हुआ है। संकीर्ण गलियां हैं जिनके छोर पर छोटे मोटे खाने पीने के सामान की दुकानें हैं, मेट्रोपोलिटन सिटीज़ की चमचमाहट और रोशनी से दूर जीवन कितना शांत नज़र आता है न और...और पीछे एक पहाड़ है। कितना अच्छा-अच्छा लग रहा है न सब एकदम ड्रीमलैंड जैसा?
लेकिन,
इतना अच्छा नहीं है सब। आप इनकी दुनियां में झाकेंगे और करीब से देखेंगे तो जान पाएंगे कि ये जो औरतें जिन्हें आप खेतों में काम करता देख रहे हैं ये इनकी स्वतंत्रता नहीं मजबूरी है। ये जो घूँघट इन्होंने ओढ़े हैं ये परम्पराएं नहीं इनकी बेड़ियां हैं। ये जो बच्चे बेफिक्र टायरों से खेलते नज़र आ रहे हैं इनमें से कई ऐसे हैं जिनके पैदा होने के बाद ही इनकी माँओं को बेच दिया गया था। ये जो छोटी छोटी दुकानें बनी है गलियों में केवल यही इनके जीवनयापन का स्त्रोत है। ये जो पुरानी धरोहर के नाम पर चूल्हे इनके घरों में है ये सरकार की तमाम नाकामयाब योजनाओं की एक झलक भर है, ये इमारतें जिन्हें आप पुश्तैनी समझ रहे हैं जिनमें बरसों से कोई बदलाव नहीं किया गया है ये इनके पिछड़ेपन और गरीबी की निशानी है।

ये है हरियाणा का 'मेवात'। दिल्ली के आईटी सेक्टर गुरूग्राम से महज 60 किलोमीटर की दूरी पर सटे मेवात की अपनी अलग कहानियां हैं। चुनावी रथ पर सवार, विकास का चौला ओढ़े यहां नेता केवल चुनावों में ही देखने को मिलते हैं। सबका अपना स्वार्थ है। मुस्लिम बाहुल्य इस इलाके में हरियाणा के किसी भी दूसरे जिले से ज्यादा गरीबी दिखाई देती है। सरकार की कथित विकास की तमाम योजनाओं को मुँह चिढ़ाते यहां के हालात उथल पुथल नज़र आते हैं। ईजिली अवेलेबल ट्रांसपोर्ट का हवाला देती सरकार की कोई बस, कोई ग्रामीण सेवा, कोई व्हीकल मुझे नज़र नहीं आ रहा है। सरकार की ग्रामीण सड़क योजना की सड़क अभी तक बस बाहर बाहर तक ही पहुँच पाई है। गांव के अंदर सड़के नहीं बनी है। शायद नेता लोग बाहर से ही निकल जाते होंगे।
हालात को छोड़ दिया जाए तो हमारा ध्यान आकर्षित करती है यहां की एक प्रथा 'पारो प्रथा' यही कोई 4-5 साल पहले एक किताब पढ़ी थी जिसमें इसका जिक्र था।
'पारो'...नहीं ये देवदास वाली पारो नहीं हैं। देवदास की पारो को तो प्यार मिला था, इज़्ज़त मिली थी। इन्हें मार-पिटाई, जोर-जबरदस्ती के सिवा कुछ नहीं मिलता।


गांव की सबसे बूढ़ी दादी, 85 साल की सलीमन बताती हैं कि उन्हें याद नहीं उनका माइका कहाँ है, उन्हें कहाँ से लाया गया, अब उन्हें उनका घर का रास्ता भी याद नहीं। अपनी भाषा में वह कहती हैं कि 'जब से होश सम्भाला है तब से इसी गांव में हूँ। पास खड़ी एक दूसरी औरत बताती हैं कि 'ताई 7 साल की उम्र में गांव में बिहा कर लायी गई थी'। पति बहुत पहले ही गुज़र गया था। 7 बेटियां हैं जिनमें से 2 उन्ही के साथ रहती हैं। 'मैं बहुत बदनसीब हूँ' यह कहते हुए वह बताती हैं कि एक बेटा हुआ था लेकिन वो मर गया था। अब घर में केवल खाने भर का ही राशन है'। सरपंच को कहा था राशन कार्ड के लिए लेकिन हम गरीबों की कौन सुनेगा?
पास ही में एक दसवीं क्लास का बच्चा भी खड़ा था। जब उससे स्कूल की पढ़ाई लिखाई के बारे में पूछने लगी तो पीछे से एक औरत बोली कि इसकी माँ को बहुत साल पहले आगे बिहा दिया था (उनका मतलब शायद बेचने से था)। मेवात के इलाकों में ये आम बात है। ब्राइड ट्रैफिकिंग के सबसे ज्यादा केस यहीं मिलते हैं। इसमे दूसरे प्रदेश से लड़कियां, बच्चियां, औरतें यहां लायी जाती हैं केवल अपना मतलब साधने के लिए। फिर चाहे वह किसी अधेड़ उम्र के बुड्ढे की यौन इच्छाओं को पूरा करने लिए लायी गयी हों, बेटे की चाह में लायी गयी हों, घर और खेती का काम करवाने के लिए लायी गई हों या किसी से दूसरी शादी के लिए लायी गयी हों, मतलब पूरा हो जाने के बाद इन्हें आगे बेच दिया जाता है।
45 साल की सुशीला का भी यही हाल है। लेकिन उसे याद है कि 12 साल की उम्र में उसे राजस्थान के एक पिछड़े इलाके से कुछ पैसों के लालच में यहां लाया गया था। वह दूसरी शादी के तौर पर लायी गयी थी। हालांकि उसके बाद से ही उसके परिवार का उससे कोई कांटेक्ट नहीं है। न ही कोई आजतक देखने आया है।

गट्ठर उठाये महिलाएं
मेवात में एंट्री करते ही गोद में अपने बच्चों को उठाये खेतों में काम करती, सर पर गट्ठर उठाये महिलाएं आसानी से दिख जाएंगी। मुश्किल होगा तो मर्दों का काम करता हुआ दिखना। मर्द दिखेंगे जरूर लेकिन कहीं कोई ताश के पत्ते खेलते हुए, कहीं कोई हुक्का गुड़गुड़ाते हुए और कहीं बस घरों में खाटो पर आराम फरमाए।
सालों से सरकार 'पारो' का बचाव करती आयी है केवल ये कहकर कि लड़कियों की कम संख्या के कारण दूसरे प्रदेशों से लड़कियां लायी जाती हैं। दिन में औरतों को कृषि कार्य व रोटी बनाना और रात में मर्द के बिस्तर पर होना उनका जन्मजात कार्य माना जाता है।
गांव के बच्चे
एक लगभग 32 साल की महिला कहती है कि 'बीरबानी घर के कामों और बच्चों को सम्भालने से लेकर खेत जोतना, काटना, बुवाई करना सबकुछ खुद करती हैं, मर्द कुछ नहीं करते'। हालांकि एक महिला बचाव में कहती हैं कि कुछ मर्द बाहर ही रहते हैं दूसरी जगह काम करने चले जाते हैं फिर रविवार को घर आ जाते हैं। विडम्बना है कि जिस महिला को आजतक केवल एक वस्तु जो केवल उपभोग के लिए ही प्रयोग में लायी जा रही ही वाला जीवन बीताना पड़ रहा हो वहां भी मर्दों को बचाया जा रहा है।
दो प्रकार के विवाह हमारे यहां माने जाते हैं एक विवाह वो जिसमें दान-दहेज लेकर लड़की को लाया जाता है और दूसरा जिसमें एक रकम चुका कर लड़की से विवाह किया जाता है। इसमें से ज्यादा चिंताजनक दूसरा विवाह है क्योंकि इसमें सम्भावनायें रहती हैं कि एकदिन ज्यादा रकम मिलने पर वो मर्द अपनी मर्ज़ी से उस लड़की को किसी और के साथ जोड़ सकता है।
घूंघट ओढ़े एक लड़की
कहीं सुना था कि गांव में एक नई नवेली बहु को शादी के 2 हफ्ते बाद ही किसी दूसरे के यहां दे दिया (बेच दिया) गया था, शायद उसे असम से लाया गया था।
सरकार और इस प्रथा के पक्षधरों का सबसे बड़ा तर्क यही रहता है कि यह एक जरूरत है, मजबूरी है।
मेवात में आज भी कई पारो केवल यौन दासियों का जीवन व्यतीत कर रही हैं। भैंसों की तरह इन्हें भी बेच दिया जाता है। ये लड़कियां बिकती हैं। बार-बार बिकती हैं। तबतक बिकती हैं जबतक यह यौन कर्म को ही अपना नहीं लेती, या भाग नहीं जाती। कई पारो भाग जाती हैं। इन बेड़ियों से, इन परम्पराओं से, इन मजबूरियों से, वस्तु की तरह प्रयोग किये जाने से और कुछ-कुछ अपनी ज़िन्दगी से भाग मौत को अपना लेती हैं। जो पारो रह जाती हैं वो ऐसे ही गुमनामी में अंधेरे में इन मर्दों के बोझ तले दबी रहती हैं ज़िन्दगी भर और खत्म कर देती हैं खुद को 'पारो प्रथा' में।

फोटो साभार: अज़हर अंसार

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