Wednesday, May 27, 2020

जवाहरलाल नेहरू की किताब 'पिता के पत्र पुत्री के नाम'


हमारे यहां लड़कियों की ज़िन्दगी में पिता का रोल बेहद कम होता है। हम बचपन से लेकर बड़े होने तक माँ के साथ ज्यादा घुलमिलकर रहते हैं। पिता अक्सर हमारी ज़िन्दगी में कम ही रहते हैं। लेकिन फिर भी एक लड़की अपनी ज़िन्दगी में आने वाले लड़के में अपने पिता जैसे गुण देखना चाहती है। मुझे नहीं याद है मेरे पिता ने आखिरी बार मेरा माथा कब चूमा था। शायद जब मैं पैदा हुई होंगी तब। शुरू से लेकर आजतक मैंने अपनी पसन्द, नापसन्द, परेशानियां, खुशियां, दुख, बचपन में लगी चोट, दोस्तों से हुई लड़ाई सबकुछ अपनी माँ को ही बताया है। ऐसा नहीं है कि पिता अपनी बेटियों को प्यार नहीं करते। मुझे लगता है एक माँ से ज्यादा पिता अपनी बेटियों को प्यार करते हैं। जो पिता अपनी बेटियों को नहीं बता पाते हैं कि वो उन्हें कितना प्यार करते हैं उन्हें शायद पत्र लिखकर बता देना चाहिए। ज़िन्दगी में एक बार ही सही लेकिन दुनियां के सभी पिताओं को अपनी बेटियों को एक पत्र तो जरूर लिखना चाहिए। 

जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी बेटी इंदिरा को लिखे पत्रों में देश-दुनियां की सभी बातें बताई थी। किताब को पढ़ते हुए एक दफा भी ऐसा नहीं लगा कि ये किसी एक के लिए लिखे गए पत्र हैं। इंदिरा गांधी जब मसूरी में थी तब जवाहरलाल नेहरू इलाहाबाद से उनको पत्र लिखा करते थे। वह केवल 10 साल की थी। बाद में चलकर इन पत्रों का संग्रह ही 'पिता के पत्र पुत्री के नाम' किताब बनी। इस किताब में 31 पत्र हैं जो नेहरू ने 1928-29 में लिखे थे। यह शायद आजतक की पढ़ी हुई मेरी सबसे सरल किताब है। मानव सभ्यता के बारे लिखी गयी सबसे आसान और सरलतम किताब है। संसार का इतिहास, मानव सभ्यता, जातियों का बनना, मज़हबों के नाम पर बंटना, रामायण-महाभारत, विश्व युद्ध, काम का बंटवारे, हमारे आसपास के समाज की संरचना से लेकर रेसिस्म तक सभी कुछ लिखा गया है। मूड को एकदम लाइट करने वाली किताब है।

ये किताब के कुछ अंश हैं: 

1. प्रकृति: ये पहाड़, सितारे, नदियां, जंगल, जानवरों की पुरानी हड्डियां और इसी तरह कई चीज़ें वे किताबें हैं जिनसे दुनियां का पुराना हाल मालूम होता है। मगर हाल जानने के लिए केवल दूसरों का लिखा ही पढ़ना काफी नहीं है जरूरी है कि हैं संसार-रूपी किताब को पढ़ें। संसार एक ऐसी किताब है जो हमेशा हमारे सामने खुली रहती है। अगर हम इसे पढ़ना सीख लें तो ना जाने कितनी कहानियां हमे इसके पत्थरों के पृष्ठों में मिलेगी जो किसी भी परियों की कहानी से ज्यादा खूबसूरत होंगी।
2. आदमी, जानवर और रेसिस्म: आदमी और जानवर में सिर्फ अक्ल का फर्क है। इस अक्ल ने आदमी को उससे बड़े बड़े जानवरों से ज्यादा ताकतवर बना दिया। सभी इंसान एक ही हैं। बस आबोहवा का फर्क है। सभी का एक रंग है काला, गोरा का उसके इंसान होने पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
3. सभ्यता: अच्छी-अच्छी इमारतें, तस्वीरें, किताबें और तरह तरह की खूबसूरत चीज़ें सभ्यता की पहचान है। मगर एक भला आदमी जो स्वार्थी नहीं है और सबकी भलाई के लिए दूसरों के साथ मिलकर काम करता है सभ्यता की सबसे बड़ी पहचान है। 

हमारे बचपन के सिलेबस में ऐसी किताबें जरूर रखनी चाहिए। मानव सभ्यता के बारे में लिखी गयी मोटी-मोटी पोथियों वाली किताबों से इतर ऐसे पत्र और ऐसी सरल भाषा वाली किताबें आज के दौर की जरूरत है। घृणा, कपट, छल, आतंक और ज़हर से भरे समाज में पल रहे बच्चों को जटिल नहीं ऐसी ही सरल किताबों की जरूरत होने वाली है। क्योंकि ऐसी किताबें ही उनके बचपन को बचाये रखेंगी।

Saturday, May 16, 2020

'मौत' का अखबार की 'लीड खबर' बन जाना भयावह है

(Picture credit: Indian Express)
लॉकडाउन की शुरुआत से ही प्रवासी मजदूर अपने घरों की ओर जाने लगे थे। राज्य और केंद्र सरकार के तू-तू-मैं-मैं के चलते प्रवासी मजदूरों का पलायन शुरू हो गया था। जिसके बाद श्रमिक ट्रेनों की व्यवस्था करवाई गयी। खैर, उसमें भी कितनी सहूलियत दी गयी सभी जानते हैं। इस पलायन के शुरू होते ही मजदूरों के मरने की खबरें आनी शुरू हो गयी थी। पिछले 54 दिनों में 119 मजदूरों की मौत रोड एक्सीडेंट में हुई है। जिसमें से अधिकतर मौतें 6 मई से 16 मई तक हुई हैं। इनकी संख्या 96 है। 16 मई यानी कल ही 26 लोगों की मौत हुई है जिसमें से 24 औरैया में और 2 उन्नाव में। 14 मई को 7 मौतें। 13 मई को मुज़फ्फरनगर में 6 मौतें और इससे पहले ना जाने कितनी मौतें अलग हो चुकी हैं। ये अभी हाल के आंकड़े हैं। शायद कुछ ऐसे भी होंगे जो अभी गुमनाम हैं।
दा इकनोमिक सर्वे ऑफ इंडिया की 2016-2017 की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि देशभर में प्रवासी मजदूरों की अनुमानित संख्या 10 करोड़ है। इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर के मुताबिक पश्चिमी बंगाल के 2.5 लाख प्रवासी मजदूर, 2.69 लाख छत्तीसगढ़ के, उत्तर प्रदेश के 10 लाख, 5.5 लाख राजस्थान और बिहार के 2.7 लाख प्रवासी मजदूर अभी भी कहीं ना कहीं किसी रेंटेड स्पेस, शेल्टर होम या फिर रोड पर हैं। 
इन मौतों का सिलसिला चल रहा है। जबतक मजदूर सड़कों पर रहेंगे। ये चलता रहेगा।

ये मर रहे हैं। रोज़ मर रहे है। कभी ट्रेन से, कभी ट्रक से, कभी बस से, कभी रोड पर, कभी भुखमरी से और कभी लाचारी से....
अखबारों में रोज़ लीड खबर दी जा रही है। इस वक्त किसी के मरने को लीड खबर में दिया जा रहा है तो समझिए स्थिति सच में भयावह है।

जनता की कमज़ोर याददाश्त का फायदा उठाती है सरकारें।

जब जनता कोई भी सरकार चुनती है तो वह खुद को मिली हुई अपनी अनेक स्वतंत्रताएं सरकार को सौंप देती है इस आस में कि आने वाले समय में वो हमारा ख्याल रखेगी। परेशानी ये है कि जनता लोकतंत्र को बखूबी समझती है। लेकिन सरकारें? शायद नहीं। एकदम नहीं। 

रोज़ मर रहे मजदूरों को देखकर आपके मन में अगर 'भारत का स्वतंत्र नागरिक' वाला भाव जागृत हो रहा है तो वह गौरवपूर्ण हरगिज नहीं है। इनका इतिहास केवल इतना है कि रोजी की तलाश में दूसरे प्रदेशों को गए ये लोग—मरते-खाते अपना गुजारा करते हैं। एक ऊबड़-खाबड़, आधा बनता हुआ आधा ढहता हुआ सा घर लिए ये लोग जहाँ जिधर चाहें अपनी नई इमारत बना लेते हैं। इनकी भावनाएँ उतनी ही मूल्यवान हैं जितनी भारत के किसी भी नागरिक की। इनका सही सलामत घर पहुंचना उतना ही जरूरी है जितना किसी भी विदेश से आ रहे भारतीय मूल के नागरिक का। एक भी मजदूर का मरना इस सरकार की नाकामियों और निकम्मेपन की निशानी है। यह स्थिति ऐसे ही चलने दी जाएगी तो वह एक स्थायी तथ्य बनती जाएगी, यहाँ तक कि कुछ दिन में उससे कोई प्रतिक्रिया होना भी सम्भव न रह जाएगा।

जब मानव जीवन की इतनी गहरी जरूरतें पूरी करनेवाली व्यवस्थाओं का लेखा-जोखा किया जाता है तो आंकड़ें दिए जाते हैं। अब भी दिए जा रहे हैं। हर रोज़। "पिछले इतने दिनों में हमने इतना काम किया" की खबरें डालकर समाज को आश्वस्त कर दिया जाता है कि हमने इतना विकास किया। कुछ दिन बाद तथ्यों और रिपोर्टों के सहारे इत्मीनान दिला दिया जाएगा कि अब सब ठीक है। 
डर यही है कि अब अगर इस सिलसिले की अच्छाइयों का ज्यादा प्रचार कर दिया गया तो एक वक्त आएगा जब प्रशासन इसी को अपनी नीति घोषित कर देगा। और जब कोई अविश्वासी देशद्रोही इसका कारण पूछेगा तो उत्तर केवल यही होगा कि हमने अपनी सालाना रिपोर्ट में बता दिया है कि ‘साल में अमुक काम हमने किये और आप पड़ोसी देश का हाल देखिए थरथर कांप रहा है, भाई साहब।'

शुरू से ही सरकारें अपनी संस्थागत नाकामियों को ढकने के लिए सारी अव्यवस्थाओं का ठीकरा कभी किसी मजदूर, कभी कोई गरीब या कभी किसी असहाय के सर पर फोड़ देती है। ये नया नहीं है। क्योंकि सत्तासीन लोग जानते हैं कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है। फिर ये होता है कि सरकारें अपनी जिम्मेदारी को बड़ी स्पष्टवादिता से साफ कर देती है और जनता को अन्त में यही समझा दिया जाता है कि वह खुद इस प्रवृत्ति के लिए ज़िम्मेदार है। 

इसबार भी यही होगा। रुक जाइये कुछ दिन और।

Friday, May 15, 2020

गालियां हमारी बलात्कारी मानसिकता को दिखाती हैं।


सोशल मीडिया अलग खेल है। यहां कभी भी कुछ भी ट्रेंड हो सकता है। जैसे अभी #Isupportcarryminati  भयंकर रूप से ट्रेंड कर रहा है। जिस दिन मैंने ये वीडियो देखी थी उस दिन इसपर 64M views थे और 10M likes। आपकी नज़र में माँ-बहन की गाली देने को ही 'Roasting' कहा जाता है तो हमारे देश के हर घर से एक-एक #CarryMinati निकलेगा।
13 मिनट तक के इस वीडियो में और तो कुछ नहीं लेकिन #CarryMinati किस तरह से #ट्रांस्फोबिया, #बॉडी_शेमिंग, #मिसएगोनी जैसी चीजों से मानसिक तौर पर ग्रसित हैं। भाई दूसरों पर हगने को आप content creating कहते हैं तो बन्द ही कर दीजिये ऐसा कंटेंट बनाना। (खैर कंटेंट तो कहां ही create कर रहे हैं, आप हग ही रहे हैं मुँह से।)
क्या है ना बाबू आप अपने 'मज़ाक' को जस्टिफाई करने के लिए दूसरों के सर पर नहीं हगते हैं ना।🙂
#Carryminati अपनी इस वीडियो की शुरुआत टिक-टॉक चलाने वालों के लिए 'tik-tok की बेटियां', 'छक्कों' जैसा शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। और बार बार कह रहे हैं कि मज़ाक को मज़ाक की तरह लिया जाना चाहिए। पहली चीज़ ये मज़ाक कैसे है? 3rd gender के अपने अलग struggle हैं। हम या आप में से कोई भी इस struggle को नहीं समझ सकते हैं। हम अपनी आम ज़िन्दगी में 'मज़ाक' में ही सही लेकिन 'छक्के' और 'हिजड़ों' जैसे शब्दों का प्रयोग कर देते हैं। ऐसे ही आप गालियों का प्रयोग करते हैं जिसमें आप अप्रत्यक्ष तौर पर अपनी ही माँ, बहन, बेटी, बीवी, प्रेमिका, दोस्त को गाली दे रहे होते हैं। 

मुझे नहीं पता तेरी माँ की **** या तेरी बहन की*** जैसी गालियों पर लोगों को हंसी आती कैसे है? मेरी खुद ना जाने ऐसे कितने लोगों से बात होती है जो अक्सर गालियों को ये कहकर जस्टिफाई करते हैं कि गुस्से में निकल जाती है। 
आप कितने ही बड़े हों, कितने ही प्रतिष्ठित हों, कितने ही 'दिल से अच्छे इंसान' हों अगर आप अपने गुस्से को जताने के लिए या फिर हंसी मज़ाक में ही सही माँ-बहन जैसी गालियों का प्रयोग करते हैं तो मेरी नज़र में आपकी 1 पैसे की भी इज़्ज़त नहीं है। हां मैं आपके सामने pretend कर सकती हूं कि मुझे फर्क नहीं पड़ रहा है आपको भैया, सर या दोस्त बोलकर। लेकिन मुझे फर्क पड़ता है। सुन लीजिये मुझे फर्क पड़ता है और आप लोगों से बात कर रही हर लड़की या औरत को फर्क पड़ना चाहिये। गालियां इस बात की गवाह हैं कि हमारा समाज किस प्रकार बलात्कारी मानसिकता से ग्रसित है। 'आप' किस तरह से मानसिक तौर पर बलात्कारी की श्रेणी में आते हैं। 

(माँ-बहन की गाली को cool समझने वाली और गाली देने वाली लड़कियों को तो डूब ही मरना चाहिए।)

Monday, May 11, 2020

शराब की लत और मंटो..


आज सआदत हसन मंटो का जन्मदिन है। मंटो को पढ़ने से ज्यादा समझना जरूरी है। समाज की असलियत और हर बुरे पहलू को सामने लाने के बाद भी मंटो भी इसी समाज का बायप्रोडक्ट थे। मंटो के शराब पीने को आज की युवा पीढ़ी जस्टिफाई करती है। जो खतरनाक ट्रेंड है। मंटो को जैसी लिखने की लत थी वैसे ही शराब की लत थी।
मंटो अक्सर कहते थे कि अगर में आधी से ज्यादा बोतल शराब पीता हूँ तभी बेहतर लिखता हूँ। मंटों जब पंजाब में रहने जाते हैं तो एक खत में लिखते हैं "मेरी याददाश्त यहाँ की बनी हुई शराब पी-पीकर बहुत कमजोर हो गयी है। यूं तो पंजाब में शराब पीना मना है, मगर कोई भी आदमी बारह रुपये दो आने खर्च करके शराब पीने के लिए परमिट हासिल कर सकता है। इस रकम पे पांच रुपये डॉक्टर की फीस होती है, वो लिख देता है कि जिस आदमी ने यह रुपये खर्च किये हैं, अगर बाकायदा यह शराब न पिये तो उसके जीने का कोई भरोसा नहीं है।"
बंटवारे के बाद जब मंटों पाकिस्तान गए तब अक्सर ऐसा होता था कि उनके लेख के पैसे उन्हें ना देकर सीधा उनके घर पहुँचा दिए जाते थे। 
मैंने एक लेख में पढ़ा था कि मंटों  को अक्सर 'टॉमी' कह दिया जाता था क्योंकि उन्हें शराब का लालच देकर मुफ्त में लेख लिखवा लिया जाता था। और कई बार ऐसा हुआ है कि बदले में पैसे भी नहीं दिए गए। 
मंटो की सबसे बड़ी कमी उनकी शराब रही है। मंटो की लेखनी सबसे बेहतर हो सकती है...लेकिन शराब इंसान की तबाही का सबसे बड़ा कारण होती है। मंटो का भी। 'मंटो' मरते दम तक भी 'सआदत' को अपने अंदर से नहीं निकाल पाए।





Friday, May 8, 2020

Lockdown Days : 2


पता नहीं क्यों...कभी कभी सबकुछ शांत हो जाता है...मगर शांत शब्द लिखने के बाद बोध होता है कि वह गलत है, कि लिखने के बाद ही यह झूठा-सा हो गया। जो सच है, जो रात की उस घड़ी में सच था, वह महज़ अर्ध-स्वप्नों, स्मृतियों का पुंज रह गया है- आकारहीन, स्वरहीन-धुंधली धुंध के लोंदे-सा! कुछ दिनों पहले एक पुल था- एक ऐसा पुल जो जितना-कुछ जोड़ता था। हम-सबके बीच।
सोचती हूँ! नहीं आज नहीं, उस रात सोचा था जब वह लौ बिल्कुल अकेली थी, बिल्कुल नंगी थी, जिसे मैंने अपने अस्तित्व से ढंका था। लेकिन अब तो कुछ भी ऐसा नहीं रहा है, जिस पर उंगली रखकर यह कहा जा सके, कि यह आज है, यह कल। यह वह कल है, जो कभी जीवित था और अब बीत-सा गया है।
ना जाने क्यों मुझे अचानक ऐसा लग रहा है बरसों से वो खोई हुई चप्पल, किसी गुमनाम कोने से उछलकर सीधा मेरे मुँह पर आ गिरी है। मुझपर हंस रही है।
और हम क्या कर रहे हैं?
यार... हम बस हर नई चीज पर झपट रहे हैं, खुद नया बनने के लिए नहीं बल्कि उसे बोसीदा बनाने के लिए।
हम बस इस घिसटती हुई दुनिया में आंख बंद किये उम्र की लकीर पर खामोश चलते जा रहे हैं। बस चलते जा रहे हैं। एक दूसरे से टक्कर हो भी रही है तो कांधा बचाकर आगे घिसट रहे हैं। जिंदगी धीरे धीरे खिसक रही है। सच कहूँ तो, ये वक्त इस कदर इतने हौले हौले चोरी छिपे ना चलता तो मैं इतनी काहिल कभी ना होती।

तो ऐसा करते हैं कुछ देर सो जाते हैं। थोड़ी देर ही सही। आंख बन्द ही कर लेते हैं। नींद के सिरहाने सारी तकलीफें बुझ जाती हैं, कितने डर झर जाते हैं। तो कह दो खुद से कि ये वक़्त भी उसी में गुज़र जाएगा। सब ठीक हो जाएगा।

भारत के मेले: छत्तीसगढ़ का 'मड़ई मेला' जहां मिलता है औरतों को संतान प्राप्ति का आशीर्वाद

ये छत्तीसगढ़ में लगने वाला एक मेला है, गंगरेल मड़ई। दीवाली के बाद पहले शुक्रवार को यह मड़ई मेला आयोजित करवाया जाता है। इस साल भी लगा था। जो इन ...